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हो । मैं देवों का स्वामी इंद्र हूँ, स्वर्ग से यहाँ आया हूँ और प्रभु का जन्मोत्सव करूँगा । इस लिए माता आप डरना नहीं। यों कह कर इंद्र ने अवस्वापिनी निद्रा देदी और प्रभु का एक प्रतिबिम्ब बना कर माता के पास रख दिया । भगवन्त को अपने हस्तसंपुट में ले कर विशेष लाभ प्राप्त करने की भावना से इंद्र ने अपने पाँच रूप बनाये । एक रूप से प्रभु को ग्रहण किया, दो रूपों से प्रभु के दो तरफ चामर वीजने लगा, एक रूप से छत्र धारण किया और एक रूप से वज्र धारण किया।
अब देवों में आगे चलनेवाले पिछलों को धन्य मानते हैं और प्रभु का दर्शन करने के लिए अपने नेत्र पिछली तरफ चाहते हैं । इस प्रकार इंद्र मेरुपर्वत पर जाकर उसके शिखर के दक्षिण भागमें रहे हुए पाण्डुक वनमें पाण्डुशिला पर प्रभु को गोदमें लेकर पूर्वदिशा तरफ मुख कर के बैठ जाता है। उस समय तमाम इंद्र प्रभु के चरणों में उपस्थित होजाते हैं । दश वैमानिक, बीस भुवनपति, बत्तीस व्यन्तर और दो ज्योतिष्क एवं चौंसठ इंद्र उपस्थित हो
गये। सुवर्ण के, चाँदी के, रत्नों के, सौनेचाँदी के, सुवर्णरत्नों के, चाँदी और रत्नोंके, सौने चाँदी और रत्नों के तथा | मिट्टी के ऐसे आठ जाति के प्रत्येक के एक हजार और आठ एक योजनप्रमाण मुखवाले कलशे ( पच्चीस योजन
ऊंचे, बारह योजन चौड़े और एक योजन नालबाले, सब इंद्रों के एक करोड़ और साठ लाख कलशे होते हैं) तथा इसी प्रकार पुष्प चंगेरी, भुंगार, दर्पण, रत्नकरण्डक, सुप्रतिष्ठक, थालादि पूजा के उपकरण प्रत्येक कलशे के समान एक हजार आठ प्रमाणवाले समझने चाहिए । तथा मागध आदि तीर्थों की मिट्टी, गंगादि का जल, पद्मसरोव
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