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प्रभु की मातृभक्ति और मोह का नाटक एक दिन भगवन्त महावीर प्रभुने गर्भ में यह विचार किया कि मेरे हलनचलन से माताजी को कष्ट न होना चाहिये । इस तरह माता की अनुकंपा-भक्ति से तथा दूसरे भी इस प्रकार माता की भक्ति करें इस लिए माता की कुक्षी में स्वयं निश्चल अर्थात् अंगोपांग हलन चलन किये बिना निष्कंप होगये । यहाँ पर कवि उत्प्रेक्षा करते हैं कि क्या एकान्त में माता के गर्भ में निश्चल रह कर प्रभु मोह सुभट को जीतने का विचार करते हैं ? या परब्रह्म के लिए कोई अगोचर ध्यान करते हैं ? या कल्याण रस-स्वर्ण सिद्धि की साधना करते हैं? या कामदेव का नाश करने के लिए अपने रूप को उन्होंने लोप कर लिया है ? ऐसे श्रीवीर प्रभु आप को लक्ष्मी के लिए हों।
माता की भक्ति से भगवान के गर्भ में निश्चल रहे बाद त्रिशला क्षत्रियाणी के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय पैदा हुआ । क्या मेरा वह गर्भ किसी देवादिकने हरन कर लिया ? या मेरा गर्भ मर गया ? या च्युत हो गया ? या मेरा गर्भ गल गया? क्यों कि वह पहले तो हलताचलता था और अब तो बिल्कुल हलता नहीं है। इस तरह के विचारों से कलुषित मनवाली तथा गर्भहरण के संकल्पविकल्पों से उत्पन्न पीड़ा द्वारा शोकसमुद्र में डूबी हुई और हथेली पर मुख रख कर आर्तध्यान द्वारा भूमि पर दृष्टि लगाये हुए त्रिशला क्षत्रियाणी मन में विचारने लगी। यदि सचमुच ही मेरे गर्भ को नुकशान हुआ हो तो पुण्य रहित जीवों में मैं ही मुख्य हूँ। अथवा चिन्तामणि रत्न माग्यहीन मनुष्य के घर वृद्धि नहीं पाता, भूमि के भाग्य से मारवाड़ देश में कल्प
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