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यायी बने, क्यों कि कहा भी है
सर्वेपि यत्र नेतारः, सर्वे पंडितमानिनः। सर्वे महत्वमिच्छन्ति तद्वंदमवसीदति ॥१॥
अर्थात्-जहाँ पर सब ही अग्रेसर हों, सब ही अपने आपको पंडित मानते हों, सब ही महत्व चाहते हों वह समुदाय नष्ट होजाता है । इस बात पर यहाँ एक दृष्टान्त देते हैं-एक समय परदेश से एक पाँचसौ सुभटों का समुदाय नौकरी करने के लिये एक राजसभा में आया । वे पाँचसौ ही अभिमानी थे, बड़े छोटे का व्यवहार तक भी आपस में न करते थे। मंत्री की सलाह से उनकी परीक्षा करने के लिए राजाने रात्रि के समय उनके पास एक शय्या भेजी, परन्तु वे तो सभी अपने आपको बड़ा समझते थे इस लिए आपस में क्लेश करने लगे, अन्त में फैसला हुआ कि उस शय्या पर कोई मी न सोवे, अतः उसे बीच में रख कर वे चारों ओर उसकी तरफ पैर कर के सो गये । प्रातःकाल राजाने उनकी चेष्टायें जानने के लिए छोड़े हुए गुप्त पुरुष के द्वारा समाचार सुन कर उन्हें यह समझ कर कि ये युद्धादि में किसी के आज्ञाकारी नहीं रह सकते अपमानित कर वहाँ से निकाल दिया। इस लिए स्वप्नपाठक राजद्वार पर एकमत होकर सभामंडप में सिद्धार्थ राजा के पास आये । वहाँ आकर हाथ जोड़ कर-हे राजन् ! आपकी देश भर में जय हो, विदेश में विजय हो इस प्रकार जय और विजय से राजा को बधाया और आशीर्वाद दिया
दीर्घायुभव, वृत्तवान् भव, भव श्रीमान् , यशस्वी भव, प्रज्ञावान् भव, भूरिसत्वकरुणादानैकशौण्डो भव,
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