________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
और क्षुर मुंडन स्वीकार किया । उसने निश्चय किया कि साधु सर्व प्राणातिपात की विरति रखते हैं परन्तु मैं स्थूल प्राणातिपात की विरति रक्खूंगा। साधु शील सुगंधित हैं, मैं वैसा न होने से चंदनादिका विलेपन रक्खूंगा । तो मोह रहित हैं, पर मैं वैसा न होने से एक छत्री भी रक्खूँगा । मुनि नंगे पैर रहते हैं, परन्तु मैं पैरों में जूते भी रक्खूँगा । मुनि कषाय रहित हैं, मैं वैसा नहीं इस लिए मैं अपने पास काषाय वत्र रक्खूँगा । मुनि स्नान से रहित हैं, परन्तु मैं तो परिमित जल से स्नान भी किया करूँगा । इस प्रकार अपनी बुद्धि से मरीचिने परिव्राजक का वेष कल्पित कर लिया। उसे नया वेषधारी देख कर अनेक मनुष्य उसके पास जाकर उससे धर्म पूछने लगे । मरीचि लोगों के समक्ष साधु धर्म की व्याख्या करता है । उपदेशशक्ति बलवती होने के कारण अनेक राजपुत्रों को प्रतिबोधित कर भगवान को शिष्यतया प्रदान करता है और प्रभु आदिनाथ स्वामी के साथ ही विचरता है । एक समय प्रभु अयोध्या में समवसरे, तब वंदन करने के लिए आये हुए भरतने प्रभु से पूछा कि स्वामिन्! इस सभा में कोई ऐसा मनुष्य है जो भरत क्षेत्र में इस चौवीसी में तीर्थंकर होनेवाला हो ? भगवान बोले- हे भरत ! तेरा पुत्र मरीचि इस वर्तमान अवसर्पिणी में वीर नामक चौवीसवाँ तीर्थकर, विदेह क्षेत्र की मूका राजधानी में प्रियमित्र नामा चक्रवर्ती और इस भरतक्षेत्र में प्रथम वासुदेव होगा। यह सुन कर हर्षित हुआ भरत मरीचि के पास जाकर उसे तीन प्रदक्षिणा और नमस्कार कर बोला- हे मरीचे! संसार में जितने श्रेष्ठ
१ गेरु से रंगा हुआ वस्त्र !
For Private And Personal