Book Title: Harivanshpuran
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ प्रस्तावना [१०] हरिवंशपुराणकी साहित्यिक सुषमा हरिवंशपुराण न केवल कथा ग्रन्थ है किन्तु महाकाव्यके गुणोंसे युक्त उच्च कोटिका महाकाव्य भी है। इसके सैंतीसवें सनसे नेमिनाथ भगवानका चरित्र प्रारम्भ होता है वहींसे साहित्यिक सुषमा इसकी बढ़ती जाती है। इसका पचपनवाँ सर्ग यमकादि अलंकारोंसे अलंकृत है। अनेक सर्ग सुन्दर-सुन्दर छन्दोंसे विभूषित हैं । ऋतुवर्णन, चन्द्रोदयवर्णन आदि भी अपने ढंगके निराले हैं। नेमिनाथ भगवानके वैराग्य तथा बलदेवके विलाप आदिके वर्णन करने के लिए जिनसेनने जो छन्द चुने हैं वे रस परिपाकके अत्यन्त अनुरूप है। श्रीकृष्णकी मृत्यु के बाद बलदेवका करुण विलाप और स्नेहका चित्रण, लक्ष्मणको मृत्युके बाद रविषेणके द्वारा पत्रपुराणमें वर्णित राम-विलापके अनुरूप है। वह इतना करुण चित्रण हुआ है कि पाठक अश्रुधाराको नहीं रोक सकता । नेमिनाथ वैराग्य वर्णनको पढ़कर प्रत्येक मनुष्यका हृदय संसारकी माया-ममतासे विमुख हो जाता है । राजीमतीके परित्यागपर पाठकके नेत्रोंसे सहानुभतिको अश्रुधारा जहां प्रवाहित होती है वहां उनके आदर्श सतीत्वपर जन-जनके मानसमें उनके प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न होती है। मृत्युके समय कृष्णके मुखसे जो अन्तिम उद्गार प्रकट हुए हैं उनसे उनकी महिमा बहुत ही ऊँची उठ जाती है । तीर्थंकर प्रकृतिका जिसे बन्ध हुआ है उसके परिणामों में जो समता होनी चाहिए वह अन्त तक स्थित रही है। यहाँ हम कुछ अवतरण देकर ग्रन्थकी सुषमाको प्रकट करना चाहते थे परन्तु लेखका कलेवर बढ़ जानेके भयसे वैसा नहीं कर रहा हूँ। मेरा अनुरोध है कि पाठक ग्रन्थका स्वाध्याय कर रसानुभूति करें। [११] हरिवंशपुराण और लोकवर्णन हरिवंशपुराणका लोकवर्णन प्रसिद्ध है जो त्रैलोक्यप्रज्ञप्तिसे अनुप्राणित है। किसी पुराणमें इतने विस्तारके साथ इस विषयकी चर्चा आना खास बात है। पुराण आदि कथाग्रन्थोंमें लोक आदिका वर्णन संक्षेप रूपमें ही किया जाता है परन्तु इसका वर्णन अत्यन्त विस्तार और विशदताको लिये हए है। कितने ही स्थलोंपर करणसूत्रोंका भी अच्छा उल्लेख किया गया है। यदि लोक-विभागके प्रकरणको हिन्दी अनुवादके साथ अलगसे प्रकाशित कर दिया जाये तो अल्पमूल्यमें पाठक इससे अवगत हो सकते हैं। [१२] हरिवंशपुराण और धर्मशास्त्र भगवान नेमिनाथकी दिव्यध्वनिके प्रकरणको लेकर ग्रन्थकर्ताने बड़े विस्तारके साथ तत्त्वोंका निरूपण किया है। इस निरूपणका आधार उमास्वामो महाराजका तत्वार्थसूत्र और पूज्यपाद स्वामीको सर्वार्थसिद्धि टीका है। वर्णनको देखकर ऐसा लगने लगता है कि मानो तत्त्वार्थसूत्र और सर्वार्थसिद्धि ही श्लोकरूपमें परिवर्तित हो सामने आये हैं । कथाके साथ-साथ बीच-बीच में तत्त्वोंका निरूपण पढ़कर पाठकका मन प्रफुल्लित बना रहता है। [१३ ] एक विचारणीय विषय दिगम्बर परम्परामें नारदको नरकगामी माना गया है परन्तु हरिवंशपुराणके कर्ताने उसे चरमशरीरी बताया है प्रस्तावेऽत्र गणिज्येष्ठं श्रेणिकोऽपृच्छदित्यसौ । क एष नारदो नाथ कुतो वास्य समुद्भवः ॥१२॥ सर्ग ४२ गण्युवाच वचो गण्यः शृणु श्रेणिक भण्यते । उत्पत्तिरन्त्यदेहस्य नारदस्य स्थितिस्तथा ॥१३॥ सर्ग ४२ अन्त्यदेहः प्रकृत्यैव निःकषायोऽप्यसो क्षिती। रणप्रेक्षाप्रियः प्रायो जातो जल्पाकभास्करः ॥२२॥ सर्ग ४२ [३] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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