Book Title: Harivanshpuran
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 17
________________ प्रस्तावना १५ है-१ बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २ युक्त्यनुशासन, ३ आप्तमीमांसा, ४ रत्नकरण्ड श्रावकाचार और ५ स्तुतिविद्या । हरिवंशपुराणकार जिनसेनने इनके जीवसिद्धि और युक्त्यनुशासन इन दो ग्रन्थोंका उल्लेख किया है। इनका समय विक्रमकी २-३ शताब्दी माना जाता है । सिद्धसेन इस नामके अनेक विद्वान् हो गये हैं पर यह सिद्धसेन वही ज्ञात होते हैं जो सन्मतिप्रकरण नामक प्राकृत प्रन्थके कर्ता हैं । ये न्यायशास्त्रके विशिष्ट विद्वान् थे। इनका समय विक्रमको ६-७वीं शताब्दी होना चाहिए। कतिपय प्राचीन द्वात्रिशिकाओंके कर्ता भी दिगम्बर सिद्धसेन हए हैं। ये सिद्धसेन, न्यायावतारके कर्ता श्वेताम्बरीय विद्वान सिद्धसेन दिवाकरसे भिन्न हैं। देवनन्दी यह पूज्यपादका दूसरा नाम है । श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं. ४० ( ६४ ) के उल्लेखानुसार इनके देवनन्दी, जिनेन्द्रबुद्धि और पूज्यपाद ये तीन नाम प्रसिद्ध हैं। यह आचार्य अपने समयके बहुश्रुत विद्वान् थे। इनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। दर्शनसारके इस उल्लेखसे वि. सं. ५२६ में दक्षिण मथुरा या मदुरामें पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दीने द्राविड़ संघकी स्थापना की थी, आप ५२६ वि. सं. से पूर्ववर्ती विद्वान् सिद्ध होते हैं । आचार्य जिनसेनने इनका स्मरण वैयाकरणके रूपमें किया है । अबतक आपके जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश तथा दशभक्ति ये पांच ग्रन्थ उपलब्ध हो सके है ।। वज्रसूरि ये देवनन्दो या पूज्यपादके शिष्य द्राविड़संघके स्थापक वज्रनन्दि जान पड़ते हैं। जिनसेनने इनके विचारोंको प्रवक्ताओं या गणधर देवोंके समान प्रमाणभूत बतलाया है और उनके किसी ऐसे ग्रन्थकी ओर संकेत किया गया है जिसमें बन्ध और मोक्ष तथा उनके हेतुओंका विवेचन किया गया है। दर्शनसारके उल्लेखानुसार आप छठी शतीके प्रारम्भके विद्वान् ठहरते हैं। महासेन इन्हें जिनसेनने सुलोचना कथाका कर्ता कहा है । इनका विशिष्ठ परिचय अज्ञात है । रविषेण आप पद्मपुराणके कर्ता रविषेण हैं। पद्मपुराणकी श्रुतिसुखद और हृदयहारी रचना कर आपने रामकथाको अपने ढंगसे विद्वत-समाजके समक्ष उपस्थित किया है। आप विक्रमकी आठवीं शतीके मध्यवर्ती विद्वान् थे । आपने पद्मपुराणकी रचना वि. सं. ७३३ में पूर्ण की है। जटासिंहनन्दि जिनसेनने इनका नामोल्लेख न कर इनके वराङ्गचरितका उल्लेख किया है। यह बड़े भारी तपस्वी थे । इनका समाधिमरण 'कोप्पण' में हुआ था। कोर्पणके समीपको 'पल्लवकी गुण्डु' नामकी पहाड़ोपर इनके चरण-चिह्न भी अंकित है और उनके नीचे दो लाइनका पुरानी कनड़ीका एक लेख भी उत्कीर्ण है जिसे 'चापय्य' नामके व्यक्तिने तैयार कराया था। इनकी एकमात्र कृति 'वराङ्गचरित' डॉ. ए. एन. उपाध्येद्वारा सम्पादित होकर माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित हो चुकी है। राजा वरांग बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथके समयमें हआ है। उपाध्येजीने जटासिंहनन्दी का समय ७वीं शती निश्चित किया है । १. देखो, अनेकान्त : वर्ष ६, किरण ११-१२ में प्रकाशित, पं. जुगल किशोरजी मुख्तार का 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' शीर्षक लेख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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