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हरिवंशपुराणे
नारदोऽपि नरश्रेष्ठः प्रव्रज्य तपसो बलात् ।
कृत्या भवक्षयं मोक्षमक्षयं समपेयिवान् ॥२४।। सर्ग ६५ उक्त श्लोकोंमें १३ और १२वें श्लोकमें नारदको अन्त्यदेह लिखा है जिसपर कितनी ही प्रतियोंमें 'चरमशरीरस्य' यह टिप्पण भी दिया हआ है और ६५वें श्लोकमें तो स्पष्ट ही अक्षय मोक्षको प्राप्त करनेकी बात लिखी है।
यह नारदकी मुक्तिका प्रकरण विचारणीय है। इसी प्रकार ६५वें सर्गके अन्त में कथा है कि बलदेव जब ब्रह्मलोकमें देव हो चुके तब वे अवधिज्ञानसे कृष्णके जीवका पता जानकर उसे सम्बोधनके लिए बालुकाप्रभापृथिवीमें गये। बलदेवका जीव देव, कृष्णको अपना परिचय देने के बाद उसे वहाँसे अपने साथ ले जानेका प्रयत्न करता है परन्तु वह सब विफल होता है। अन्तमें कृष्णका जीव बलदेवसे कहता है कि, 'भाई जाओ अपने स्वर्गका फल भोगो, आयुका अन्त होनेपर मैं भी मनुष्यपर्यायको प्राप्त होऊँगा। वह मनुष्यपर्याय जो कि मोक्षका कारण होगी। उस समय हम दोनों तप कर जिनशासनको सेवासे कर्मक्षयके द्वारा मोक्ष प्राप्त करेंगे। परन्तु तुम इतना करना कि भारतवर्ष में हम दोनों पुत्र आदिसे संयुक्त तथा महाविभवसे सहित दिखाये जावें । लोग हमें देखकर आश्चर्यसे चकित हो जावें । तथा घर-घरमें शंख, चक्र और गदा हाथमें लिये हुए मेरी प्रतिमा बनायी जाये और मेरी कीर्तिकी वृद्धिके लिए हमारे मन्दिरोंसे भरतक्षेत्रको व्याप्त किया जाये।' बलदेवके जीवने कृष्णके वचन स्वीकार कर उससे कहा कि सम्यग्दर्शनमें श्रद्धा रखो। तथा भरतक्षेत्रमें आकर कृष्णके कहे अनुसार विक्रियासे उनका प्रभाव दिखाया और तदनुसार उनकी प्रतिमा और मन्दिर बनवाकर भरतक्षेत्रको व्याप्त किया।
इस प्रकरण में विचारणीय बात यही है कि जिसे तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध है वह सम्यग्दृष्टि तो रहेगा ही। यह ठीक है कि बालुकाप्रभामें उत्पन्न होते समय उनका सम्यक्त्व छूट गया होगा परन्तु अपर्याप्तक अवस्थाके बाद फिरसे उन्हें सम्यग्दर्शन हो गया होगा यह निश्चित है। सम्यग्दृष्टि जीवने लोकमें अपनी प्रतिष्ठा बढ़ानेके लिए मिथ्यामूर्तिके निर्माणको प्रेरणा दी और सम्यग्दृष्टि बलरामके जीव देवने वैसा किया भी । इस प्रकरणकी संगति कुछ समझमें नहीं आती।
सम्पादन और आभार-प्रदर्शन इस ग्रन्थके सम्पादनमें श्रम बहुत करना पड़ा। जिन स्थलोंका आधार मिल गया उनके सम्पादनमें तो सुविधा रही परन्तु जिनका कुछ आधार नहीं मिला उनके सम्पादनमें बहुत खोज-बीन करनी पड़ी। महापुराणके सम्पादनके लिए कुछ ताडपत्रीय प्रतियाँ मिल गयी थीं जिनसे सही पाठ आँकने में बहुत सहायता मिली थी; परन्तु हरिवंशपुराणकी ताड़पत्रीय प्रतियाँ नहीं मिल सकी। उत्तर भारतके भाण्डारोंमें पायी जानेवाली कागजकी ही प्रतियाँ उपलब्ध हुई। हमें यह लिखते हुए संकोच नहीं होता कि उत्तर भारत में जो कागजपर प्रतियाँ लिखी गयी हैं वे यदा-कदा च ऐसे पेशेवर लेखकोंकी कलमसे भी लिखी गयी हैं जो संस्कृत भाषासे प्रायः अनभिज्ञ रहे हैं । ऐसे लेखकोंकी कृपासे प्रतियाँ प्रायः अशुद्ध हो गयी है अतः शुद्ध पाठकी कल्पना करनेमें बहुत चिन्तन करना पड़ता है। ऐसे कई स्थल इस ग्रन्यमें निकले जिनके विषयमें मझे दूसरी प्रतियों के पाठ मिलाने पड़े और 'पद्मयान क्या है' इस विषयका एक लेख ही जैन सन्देशमें लिखना पड़ा। पं. के. भुजबली शास्त्रीने मैसूरकी प्रतियोंसे पाठ मिलाने और पं. कुन्दनलालजीने बम्बईकी प्रतियोंसे पाठ मिलाने में मुझे पर्याप्त सहयोग दिया। पं रतनलालजी कटारया केकड़ी भी सुयोग्य विद्वान् हैं, आपने हमारा 'पद्मयान' वाला लेख पढ़कर सुझाया कि सिन्धुरारोढुंके स्थानपर शम्भुरारोढं पाठ होना चाहिए। सम्पादनके लिए उपलब्ध प्रतियोंमें-से सभीमें 'सिन्धुरारोढुं' पाठ था पर खोज करनेपर मैसूरकी प्रतियोंमें शम्भुरारोढुं पाठ मिल गया और उससे अर्थकी संगति बैठ गयी। और भी एक-दो स्थल ऐसे हैं जिनमें आपने अच्छा विचार व्यक्त
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