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संविग्न गीतार्थ की आचरणा
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यहां कोई-कोई ऐसा कहते हैं: - जो इस प्रकार आचरित को तुम प्रमाण करते हो तो हमारे पिता-पितामह अनेक आरम्भ और मिथ्यात्व की क्रिया में प्रवृत्ति करने वाले थे । इसलिये हमको भी वैसी ही प्रवृत्ति करना चाहिये ।
यहां इस प्रकार उत्तर है कि - हे सौम्य ! सीधे मार्ग में दौड़ते उलटे मार्ग में मत जा । क्योंकि हमने तो संविग्न-जनों के आचरित हो को स्थापित किया है । सर्व पूर्वपुरुषों के आचरित को नहीं । इसी कारण से कहते हैं कि
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जं पुण पमायरूवं गुरु- लाघवचितविरहियं सवहं । सुहसालसढा न वरित्तिणो तं न सेवं'त ॥ ८६॥
मूल का अर्थ - जो सुखशील- जनों ने गुरु - लाघव विचारे बिना प्रमादरूप हिंसा वाला काम किया हो उसे चारित्रवान् पुरुष नहीं करते ।
टीका का अर्थ - जो आचरित संयम को बाधा करने वाला
होने से प्रमादरूप हो और उसीसे गुरु- लाघवचिता रहित हो, अर्थात् सगुण है कि निर्गुण है, ऐसी पर्यालोचना से वर्जित हो और इससे यतना न होने के कारण सवध ( हिंसायुक्त) हो और सुखशील अर्थात् इस लोक ही के सुख में प्रतिबद्ध, तथा शठ अर्थात् मिथ्या आलंबन लेने वाले जनों ने आचरण किया हो, उसे शुद्ध चारित्र वाले नहीं सेवन करते । इसी बात का उल्लेख बताते हैं
जह सड्ढेसु ममत्तं, राढा असुद्ध उवहिताई । निदिज्जव सहि तूली, मसूर माईण परिभोगो || ८७||