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संविग्न गीतार्थ की आचरणा
__ मूल का अर्थ-जैसे कि-श्रावकों में ममत्व करना, शोभा के लिये अशुद्ध वस्त्र, पात्र तथा आहार ग्रहण करना, कायम रूप से दो हुई वसति अंगीकृत करना तथा गादी, तकिये आदि का उपयोग करना (यह सब प्रमाद है) ___टीका का अर्थ-जैसे कि-दृष्टान्त रूप से श्रावकों में ममत्व ममकार अर्थात् यह श्रावक मेरा ही है, ऐसा गाढ़ आग्रह आगम में निषिद्ध है । कहा भी है कि-"ग्राम, कुल, नगर वा देश इनमें से किसी में भी ममत्वभाव नहीं करना' ऐसा होने पर भी कितनेक उक्त ममत्वभाव करते हैं। .
राढा अर्थात् शरीर-शोभा, उसकी इच्छा से अशुद्ध उपधि और भक्त आदि कोई-कोई लेते हैं। वहां अशुद्ध याने उद्गमउत्पादनादि दोष से दुष्ट, उपधि अर्थात् वस्त्र, पात्र आदि और भक्त याने असन, पान, खादिम, स्वादिम आदि-आदिशब्द से उपाश्रय लेना चाहिये । ये सब अशुध्द लेना आगम में निषिद्ध ही है।
आगम इस प्रकार है किः-पिंड, शय्या, वस्त्र, और चौथा पात्र ये अकल्पनीय नहीं लेना चाहिये । कल्पनीय हो वे ही लेना चाहिये । यहां शरीर-शोभा के लिये ऐसा कहा, सो पुष्टालंबन से दुर्भिक्ष और महामारी में पंचक परिहाणि से कुछ अशद्ध ले तो भी उसे दोष नहीं लगता, ऐसा बतलाने के लिये कहा है। .. क्योंकि पिंडनियुक्ति में कहा है कि-यह आहार-विधि जो सर्वभावदर्शी जिनेश्वर ने कही है, सो इस प्रकार पालना चाहिये कि-धर्म और आवश्यक व्यापार में बाधा न आवे । तथा कारणवश दोष सेवन करना पड़े, उस भाव से अनासेवना ही जानना