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प्रज्ञापनीय रूप तीसरा लिंग
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___ अब धर्म में प्रवरश्रद्धारूप भाव साधु. के दूसरे लिंग का उपसंहार करते हुए प्रज्ञापनीयरूप तीसरे लिंग को सम्बन्धित करते हैं।
एसा परासद्धा अणुबद्धा होइ भावसाहुस्स । एईए सब्भावे पन्नवणिज्जो हवइ एसो । १०५।। मूल का अर्थ-ऐसी प्रवर-श्रद्धा भावसाधु को अनुबद्ध होती है और उसके सद्भाव से वह प्रज्ञापनीय होता है। _____टीका का अर्थ-यह अर्थात् चार अंगवाली प्रवर याने उत्कृष्ट श्रद्धा याने धर्म की इच्छा भाव-साधु को अनुबद्ध याने सदैव लगी रहती है. और इस श्रद्धा के सद्भाव से वह भाव-मुनि प्रज्ञापनीय अर्थात् असद्ग्रह से रहित रहता है । भला, क्या चारित्रवान् को भी असग्रह होता है ? हां, मतिमोह की महिमा से होता भी है। मतिमोह किस से होता होगा? इसका उत्तर कहते है -
विहि-उजम-वनय-भय-उस्सग्ग-वववाय-तदुभयगयाई। सुत्ताई वहुविहाई समए गंभीरभावाई ।।१०६॥
मूल का अर्थ-विधि, उद्यम, वर्णक, भय, उत्सर्ग, अपवाद। तदुभय इस सम्बन्ध के बहुत प्रकार के गम्भीर भाव-पूर्ण सूत्र इस जिन शासन में विद्यमान हैं । "
टीका का अर्थ-विधि, उद्यम, वर्णक, भय, उत्सर्ग, अपवाद और तदुभय इन पदों का द्वन्द्वसमास करना । द्वन्द्वसमास स्वपद प्रधान होने से, गतपद प्रत्येक के साथ जोड़ा जा सकता है, और