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प्रज्ञापनीय पर
हुआ, यह सोचने लगा कि-मैने पूर्व-भव में क्या दिया है ? क्या तप किया है ? अथवा क्या पूजा है ? ऐसी चिन्ता में अवधिज्ञान से वह वानर के भव को जानने लगा। वह देव समस्त देवकृत्य छोड़कर बहुत से देव-देवियों सहित जहां उक्त मुनि ये वहां आकर विनय पूर्वक मुनि के चरणों में नमे । पश्चात् रोमांचित होकर श्री ऋषभदेव की पूजा करके तथा बारम्बार उक्त साधु को नमन करके वह (देव) स्वर्ग को गया ।
यह दृश्य देखकर सुनन्द राजा ने संवेग पाकर अपने सहस्रायुध नामक पुत्र को राज्य सौप उक्त साधु से दीक्षा ग्रहण की। अब सहस्रायुध राजा सुनन्द राजर्षि को नमन करके कांपिल्यपुर मैं आ त्रिवर्ग का ध्यान रखते हुए राज्य करने लगा। सुनन्द साधु भी दीर्घकाल तक दशविध सामाचारी पालने में तत्पर और प्रसन्नचित्त रह कर गुरु के साथ पृथ्वी पर विचरने लगा।
अब उक्त राजर्षि एक समय प्रतिकूल कर्म के जोर से प्रेरित होकर, शुभ अध्यवसाय से रहित हो इस प्रकार सोचने लगा कि-प्रतिलेखन प्रमार्जना आदि क्रियाएं किये बिना भी जीव नियति के भाव से सुगति को प्राप्त कर सकते हैं, यह बात निश्चित है। अन्यथा महायुद्ध के व्यापार में चित्त और बल को लगाने वाला मेरा मित्र वनायुध देवता कैसे होता? वैसे ही उस समय अतिशुद्ध चारित्र की क्रिया से उक्त वानर का जीव तप्त उच्च सुवर्ण के समान वणे वाला देव हुआ।
सिद्धान्त में भी सुना जाता है कि-तथाभवितव्यता के बल से मरुदेवी आदि कुछ भी क्रिया किये बिना ही मोक्ष को पहुंचे हैं। इसलिये तथाभवितव्यता ही केवल कल्याण कलाप का परम कारण है । जो वह न हो तो समस्त कर्त्तव्य-क्रिया नष्ट हो जाती