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शिवभूति की कथा
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उसमें इच्छाकार. मिथ्याकार, तथाकार, आवम्सिया, निसिही, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदना, निमंत्रणा, और उपसंपदा ऐसी दशविध सामाचारी का नित्य पालन करना, मासकल्प विहार करना, सदैव गुरुकुल में रहना, इत्यादि शुद्धक्रिया करना, सो स्थविरकल्प है । अब परिहारविशुद्धि कल्प जिनेश्वर ने इस प्रकार कहा है।
ग्रीष्म, शिशिर और वर्षाकाल में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से एक उपवास से लेकर पांच उपवास पयंत परिहार कल्यवाले का तप है। परिहार तप वाले नित्य पारणे में आंबिल करते हैं और संसृष्टादिक सात भिक्षा होती हैं । उनमें की अन्तिम पांच ग्रहण करते हैं और प्रथम दो का त्याग करते हैं। यह चार परिहारिक का तप जानों, और दूसरे जो कल्पस्थितादिक पांच हैं, उनमें वाचनाचार्य तथा चार अनुचारी हैं, ये सब नित्य आंबिल करते हैं । इस प्रकार छः मास तक तप करके परिहारिक अनुचारि होते हैं और अनुपरिहारिक-अनुचारिक होवे, यह परिहारिक पद में छः मास तक आवे ।
इस प्रकार बारह मास बीतने पर कल्पस्थित वाचनाचार्य भी पूर्वोक्त न्याय से छः मास तक परिहारिक तप करे और बाकी के आठ अनुपरिहारिकपन तथा कल्पस्थितपन को धारण करते हैं । अर्थात् सात वैयावृत्यकर होते हैं । और एक वाचनाचार्य होता है । अठारह मास का परिहारविशुद्धिक तप है। उसे जन्म से तीस वर्ष का हो वह, तथा पर्याय से उन्नीस वर्ष का हो वह स्वीकार करता है और कल्प समाप्त होने पर वह जिनकल्पि होता है । अथवा पीछा गच्छ में आता है और इसके करने वाले स्वयं जिनेश्वर से उसे अंगीकार करते हैं । अथवा तो