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श्रीप्रभ महाराजा की कथा
सुखदाता दानादिक चार प्रकार का धर्म करते रहना, न्याय मार्ग में चलते मूढजन हंसे, उसको परवाह न करना. और समस्त सांसारिक भावों-पदार्थों में राग द्वेष न करना।
तथा मध्यस्थता से स्वस्थ चित्त रख कर धर्माधर्म का विचार करना, और स्वजन सम्बन्धी तथा धन में गाढ़ प्रीति नहीं बांधना भोगोषभोग की तृष्णारूप काली नागिन को पकड़ने के लिये तैयार रहना, और निरन्तर यतिधर्म की धुरा उठाने में उद्यत रहना।
इस भांति विधिपूर्वक श्रावक का धर्म कर, निर्मल मन वाला पुरुष चारित्र पाकर, आठ भव के अन्दर मोक्ष पाता है।
यह सुन श्रीचन्द्र राजा ने श्रीप्रभ पुत्र आदि के साथ भुवनभानु गुरु से गृहस्थधर्म अंगीकृत किया । अब गुरु के चरणों में नमन करके राजा अपने स्थान पर आया और निर्मल गुणवान आचार्य अन्यत्र विचरने लगे।
एक दिन श्रीचन्द्र राजा की उसके दोनों पुत्र विनयपूर्वक अपने कोमल कर कमलों से पगचंपी कर रहे थे और अपने मुकुटोंकी मणियों की सुन्दर कांति से सभास्थान में अनेक इन्द्रधनुष बनाते हुए सहस्रों राजा भक्तिपूर्वक उसकी सेवा में उपस्थित थे, तथा राज्यभाररूप भवन को धारण करने के लिए स्तंभ समान, सद्बुद्धिवाले, निष्कपट सैकड़ों मन्त्रीश्वर उसके आसपास बैठे थे, तथा अत्यन्त घोर युद्ध में मिलने वाली संपत्ति में लंपट रहने वाले करोड़ों सैनिकों से वह परिवारित हो रहा था, इतने में हाथ में स्वर्णदण्ड धारण करने वाला छडीदार उसे इस प्रकार विनन्ती करने लगा।
हे देव ! वैरिंगमल्ल नामक नटाग्रणी (श्रेष्ठ नट) सनत्कुमार के नाट्यप्रबन्ध को संक्षेप में तैयार करके आपको मिलने आया