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श्रीप्रभ महाराज की कथा
नित्य रक्षक है। यतना उसकी वृद्धि करने वाली है और सर्वत्र यतना ही सुखकारक है । एक मात्र यतना का सेवन करके अनन्तों जीवों ने कर्म-मल दूर करके, अक्षय अव्यय शिवपद पाया है। ___ इस प्रकार शिक्षा देकर प्रभासगुरु अन्यत्र विचरने लगे। क्योंकि-शरदऋतु के बादल समान मुनिजन एक स्थान में नहीं रहते । श्रीप्रभराजा भी प्रतिसमय विशुद्ध रहते निर्मल परिणाम वाला होकर हाथी का बच्चा जैसे यूथपति (समूह के सरदार) हाथी के साथ फिरता है, वैसे गुरु के साथ सदैव विचरने लगा। ___ अब श्रीप्रभ मुनि जिनेश्वर कथित आगम के सूत्रार्थरूप अमृत को देव के समान पीते हुए, पंच महाव्रत के भार को शेषनाग जैसे पृथ्वी के भार को उठाता है, वैसे उठाते हुए, पांच तीक्ष्ण समितियों को धनुर्धारी जैसे हाथ में पांच बाण धारण करे, वैसे धारण करते हुए, तीन गुप्तियों को राजा जैसे तीन शक्तियां धारण करता है, वैसे शुद्धतापूर्वक धारण करते हुए, सुपथिक के समान सर्व मागानुसारिणी क्रिया करते हुए, फूलों के रस में भ्रमर जैसे प्रीति रखता है, वैसे धर्म में श्रद्धा रखते हुए, भद्र हाथी के समान प्रज्ञापनीयता से युक्त होकर, विद्यासाधक जैसे विद्याओं में अप्रमादी रहता है, वैसे क्रियाओं में सदैव प्रमाद रहित रहते हुए।
वैद्य जैसे योग्य रोगी को स्वीकार करता है, वैसे शक्यानुष्ठान को स्वीकार करते हुए, सरोवर के मध्य में रहकर हंस जैसे प्रसन्न होता है, वैसे गुणवान के संग में प्रसन्न रहते हुए, और परमयोगी जैसे परमात्मा का आराधना करता है, वैसे गुरुजन का आराधना करते हुए चिरकाल पर्यंत निरतिचार चारित्र का पालन करने लगे।