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प्रशस्ति
वाले, और सैकड़ों इन्द्रों से नमित पद युक्त श्री गौतम गणधर ( हमारा ) रक्षण करो । तदनंतर सुधर्मस्वामी तथा जंबू स्वामी
और प्रभव स्वामी आदि श्रुतसागर के पारगामी अनेक मुनीश्वर वृन्द (हमारे) श्रेयस्कर होओ।
इस भांति परंपरा से चित्रावालक (चित्रवाल नामक ) गच्छ में कवीश्वरों की श्रेणी रूप आकाश में श्री भुवनचन्द्र नामक महान् तेजस्वी गुरु उदय हुए । उनके शिष्य प्रशम गुण के मंदिर पूज्य देवभद्र गणि हुए । वे पवित्र सिद्धांत रूप सुवर्ण की कसौटी के समान और जगद्विख्यात महागुणवान थे । उनके पाद-पद्म में भ्रमर समान, निःसंग, श्रेष्ठ उच्च संवेगवान्, जगत् में शुद्ध-बोध फैलाने वाले जगच्चन्द्रसूरि हुए । उनके दो शिष्य हुए, प्रथम श्रीमान् देवेन्द्रसूरि और द्वितीय श्री विजयचंद्रसूरि हुए जो कि अनुपम कीर्तिवान थे। उनमें के श्रीमान् देवेन्द्रसूरि ने स्वपर के उपकार के लिये धर्म-रत्न नामक ग्रंथ की सुखबोधा ( सुख से समझी जा सके ऐसी अथवा उक्त नाम वाली) यह टीका रची है। ___ इस टीका की प्रथम प्रति गुरुजन में अनुपम भक्तिमान् विद्वान विद्यानन्द ने आनंदित मन से लिखी है। वैसे ही इसका उसी समय श्री हेमकलश उपाध्याय तथा पंडितवर्य धर्मकीर्ति आदि स्वपर सिद्धांत में कुशल विद्वानों ने संशोधन किया है।
(तथापि ) अल्पमति से इस शास्त्र में जो कुछ सिद्धान्त विरुद्ध कहने में आ गया हो, उसे तत्वज्ञ विद्वानों ने सुधार लेना चाहिये । बहुत अर्थ और अल्प शब्द वाले इस शास्त्र को रचने में मैंने जो पुण्य प्राप्त किया है, उसके द्वारा जगत् को भी धर्मरत्न की प्राप्ति होओ।
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