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धर्मरत्न का फल
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किसने कहा ? सो कहते हैं कि- शांतिसृरि ने अर्थात् जिन प्रवचन से निर्मल बुद्धिवाले, परोपकार के रसिक मनवाले, चन्द्रकुलरूप विमल नभस्थल में चन्द्रमा समान शान्तिसृरि नामक आचार्य ने । यह दूसरी गाथा का अर्थ है। __अब शिष्यों को अर्थित्व उपजाने के हेतु कहे हुए शास्त्रार्थ के परिज्ञान का फल बताते हैं
जो परिभावइ एयं संमं सिद्धतगम्भजुत्तीहि ।। सो मुत्तिमग्गलग्गो कुग्गहगत सुन हु पड़इ ॥१४४॥
मूल का अर्थ-जो कोई इसे सम्यक् रीति से सिद्धान्त की युक्तियों से विचारे, वह मुक्ति के मार्ग में लगा रहकर कुग्रह रूप गड्डे में नहीं गिरता है। ___टीका का अर्थ-जो कोई लघुकर्मो पुरुष इस पूर्वोक्त धर्मलिंगों के भावार्थ को सम्यक रीति से अर्थात् मध्यस्थपन से सिद्धांत गर्भ युक्तियों से अर्थात आगम के प्रमाणवाली युक्तियों से बराबर विचारे, वह प्राणि मुक्ति मार्ग में अर्थात् निर्वाण नगर के मार्ग में लगा हुआ अर्थात् चलता हुआ कुग्रह अर्थात् दुषमाकाल में होने वाला मतिमोह विशेष तद्रप गरी अर्थात् कुए व गड्ढे, क्योंकि-वे गति में अटकाव करते हैं, तथा अनर्थ भी उत्पन्न करते हैं। उन गड्ढों में कदापि न गिरे । हु शब्द अवधारणार्थ है, और उसीसे वह सुखपूर्वक सन्मार्ग में चला जाता है।
प्रकरण के अर्थ को विचारने का अनन्तर फल कहा, अब परम्पर फल कहते हैंइय धम्मरयणपगरण-मणुदियहं जे मणमि भावंति । ते गलियकलिलपंका-निव्वाणसुहाई पावंति ॥१४५॥