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श्रीप्रभ महाराजा की कथा
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हे प्रभु ! मैंने अल्प सत्त्ववान् होकर पूर्व में दीक्षा नहीं ली, तो अब लेना उचित है कि नहीं ? तब गुरु बोले कि-हे भूपति ! जो प्राणी एक मन से एक दिन भी प्रव्रज्या पालता है, वह जो मोक्ष को न जावे, तो वैमानिक तो अवश्य होता है। अतः अब भी संस्तारक दीक्षा ग्रहण करले और समभाव धारण कर । ऐसा सुनकर राजा हर्षित होकर संस्तारक यति हुआ। __ वह निरन्तर कर्णरूप पत्रपुट से सिद्धान्त रूपी अमृत पीता हुआ, तृष्णा रहित होकर, उल्लसित महान् समाधि रूप हृदय में हंस के समान अवगाहना करने लगा। इस भांति पन्द्रह दिवस तक अनशन करके, मन में पंच नमस्कार स्मरण करता हुआ मर कर वैजयन्तविमान में महान् ऋद्धिशाली देवता हुआ।
इधर श्रीप्रभ मुनि, प्रभास मुनीश्वर के साथ ग्राम, पुर और खेड़ों में विचरते हुए अरिदमन राजा के देश में आये। वहां लोकमुख से प्रभाचन्द्र राजा का मृत्यु वृत्तान्त सुनकर, वैराग्य पा, वह महामनस्वी ऐसा सोचने लगा कि-प्रभाचन्द्र राजा धन्य व कृतकृत्य हुआ, कि-जिसने करोड़ों भव में अति दुर्लभ पण्डित मरण प्राप्त किया। ___ मेरु समान धीर को भी मरना है, और शृगाल समान डरपोक को भी मरना है, इस भांति दोनों को मरना तो निश्चय है, तो फिर धीर रह कर ही मरना उत्तम है । अतः मैंने दो प्रकार से संलेखना करी है, और चिरकाल चारित्र का पालन किया है तो अब मुझे मृत्यु के सन्मुख होकर मरना चाहिये । यह सोचकर वे मुनि गुरु की आज्ञा ले, पाप मुक्त हो, प्रति समय उच्च परिणाम से देह में भी निःस्पृह होकर शत्रु मित्र पर समभाव रख निर्जीव शिला पर जाकर निर्मल मन से विधिपूर्वक पादपोपगम अनशन ग्रहण किया।