Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 174
________________ श्रीप्रभ महाराजा की कथा १६७ जो मेरु को दंड और पृथ्वी को छत्र करने को समर्थ थे । वे भी स्वपर को नहीं बचा सके तो दूसरे की क्या बात है ? अमृत से पोषित, हाथ में भयानक वज्र धारण करने वाला, करोड़ों देवों से परिवारित इन्द्र भी, वृक्ष पर से पका हुआ फल गिरे, उस भांति देवलोक से पतित होता है। सगर चक्रवर्ती भी साठ हजार लड़कों को यम समान ज्वलनप्रभ से बचा नहीं सका तो क्या तू उनसे भी बलिष्ट है ? पाप करके जिनका शोषण किया हो, उनके देखते हुए रंक के समान बेचारे अशरण संसारी जीव को यम घसीट कर ले जाता है। उसे वह नरक में लाता है तो वहां वह महान घोर वेदनाएं सहता है । क्योंकि-प्राणियों के कर्म जन्मान्तर में भी दौड़ते आते हैं। मेरी माता, मेरा पिता, मेरा भाई, मेरे पुत्र, मेरी स्त्री यह बुद्धि मिथ्या है। परमार्थ से शरीर भी अपना नहीं । ये पुत्रादिक भिन्न-भिन्न स्थान से आकर एक स्थान में आ बसे हैं । यह वास्तव में संध्या के समय वृक्ष पर पक्षी आकर बसेरा करते हैं, उसके समान हैं ! वहां से वापस रात्रि में सोकर उठे हुए पथिकों के समान जीव भिन्न-भिन्न स्थान को चले जाते हैं। इस प्रकार रहट की घड़ियों के न्याय से सदैव आवागमन की क्रिया करते हुए जीवों में कौन अपना व कौन दूसरो. का है। इस प्रकार राजा संवेगवश विचार कर रहा था कि-इतने में वहां उद्यान में कुमारनन्दी गुरु का आगमन हुआ। तब गुरु का आगमन जानकर, वहां जा, नमन करके राजा उचित स्थान में बैठा, तब गुरु देशना देने लगे। ' चारों ओर से अपनी जातिवालों से तथा परजाति वालों से आ पड़ती हुई अनेक आपत्तियां भोगते हुए यम के दंतयन्त्र में

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