Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 170
________________ श्रीप्रभ महाराजा की कथा १६३ हैं, परन्तु जो अनेक कुविकल्प की कल्पना करती अपनी आत्मा को जीते उन्होंने इस त्रैलोक्य को जीता है और वे ही परम शूर हैं। ___ आगम में भी कहा है कि जो संग्राम में लाखों दुर्जेय शत्रुओं को जीते (उससे) जो एक आत्मा को जीतता है, उसका जय बड़ा है। एक जीतते पांच जीते जाते हैं, पांच जीतते दश जीते जाते हैं, दश जीतने से सर्व शत्रु जीते जानना चाहिये। ऐसा सुनकर श्रीप्रभराजा गुरु को नमन करके बोला कि-मैं प्रभाचन्द्र को राज्य सौंपकर आपसे दीक्षा लूगा । तब आचार्य ने कहा कि-हे देवानुप्रिय ! प्रमाद न कर | तदनन्तर राजा हर्षित हो सपरिवार अपने स्थान को आया। अब समस्त राजपुरुषों के समक्ष अपने भाई प्रभाचन्द्र को राज्य में स्थापित करके वह राजा उसे इस प्रकार शिक्षा देने लगा-हे वत्स ! तू ने अन्तरंग शत्रुओं को सदैव जीतना । क्योंकि-उनके न जीतने से बाहर के बलवान शत्रु जीते. हुए भी अपराजित ही समझना चाहिये । तथा माली जैसे फूलों की रक्षा करता है वैसे तू अपनी प्रजा को परिश्रम से पालना तथा हृदय में जिनेन्द्र को धारण करना। वैसे ही सर्वत्र औचित्य धारण करना। उसी भांति जैसे सुसाधु प्रतिलेखना आदि क्रियाओं का साथ ही साथ साधन करता है, वैसे तू भी धर्म, अर्थ, व काम इन तीन पुरुषार्थों को परस्पर अविरोध के साथ साधते रहना। अग्नि से बिगड़े हुए कपड़े के समान अपने न्याय हीन स्वजनों को अलग करना, और घोड़ों के समान दुर्दम इन्द्रियों का दमन करते रहना । द्विदल के अन्न में गोरस के समान कुसंग का वर्जन

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