Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 164
________________ श्रीप्रभ महाराजा की कथा तब चक्रवर्ती उनको पूछने लगा कि- पहिले मुझे शृंगारविहीन देखकर हे विनों! तुम हर्षित हुए थे, किन्तु अब मैंने श्रृंगार सजा लिया है तो भी तुम खिन्न क्यों दीखते हो ? तब वे ब्राह्मण बोले कि - हे भूपति ! अभी तुम्हारे शरीर में सात व्याधियां प्रविष्ट हुई हैं, जिससे तुम्हारे अंग का अतुल रूप, लावण्य, वर्ण तथा कांति, गुण यह सब नष्ट होता जाता है, इसी से हम उदास हो गये हैं । १५७ भरताधिप ने पूछा कि यह तुमने कैसे जाना ? तब वे यथार्थरीति से पूर्व में इन्द्र की कही हुई बात बताकर अपना रूप प्रकट कर, वापिस अपने स्थान को आये | अब सनत्कुमार वैराग्यबुद्धि धारण करके इस प्रकार सोचने लगा । जिसके कारण घर, स्वजन, स्त्रियां और चतुरंगी - सैन्य का संग्रह किया जाता है, वह शरीर भयंकर कीड़ों से जैसे काष्ट बिगड़ता है वैसे ही रोगों से बिगड़ता है। जिससे मति खोकर जीव हिताहित का विचार नहीं करते, उसी यौवन को दावानल की ज्वाला जैसे वन को जलाती है वैसे ही जरा जला देती है । जिससे गर्वित होकर मनुष्य कृत्याकृत्य नहीं जान सकते, तद्रही हिम पड़ते जैसे कमल नष्ट हो आता है, वैसे ही धातुक्षोभ होने से तुरत बिगड़ जाता है। अतः आजकल में नष्ट हो जाने वाले इस शरीर का अविनश्वर फल इस समय प्राप्त करलू, इस भांति चित्त में विचार करके (हे लोकों ! देखो ) वह राजा विस्तृत राज्य त्याग कर, भवसागर में नाव: समान जिनदीक्षा ग्रहण करने लगा । सामने देखो ! सामने देखो !! ) यह दशमद्वार को रोक रखने वाला होने से मानो अपराधी हो, वैसे काली कांतिवाले

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