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श्रीप्रभ महाराजा की कथा
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संपूर्ण राज्यलक्ष्मी को छोड़ दी है ऐसा दुष्कर श्रमणधर्म कौन उठा सकता है ? क्योंकि - बुद्धिमानों को भी वैराग्य की बुद्धि क्षण भर ही रहती है । शोक तो उनका करना चाहिये कि जो सुकृत किये बिना मर जावें, जो धर्म में खूब उद्यम करें, वैसे जगत में पांच छः ही पुरुष होते हैं ।
कौन शास्त्र नहीं सुनता ? कौन सकल पदार्थ क्षणविनाशी है, ऐसा नहीं देखता ? प्रति समय होते प्राणियों के मरण को कौन नहीं विचारता ? सदैव सुखदायी गुरु का उपदेश अपने हृदय में कौन धारण नहीं करता ? और किसको अक्षय, अनन्त, अनुपम अमृत सुख (मुक्ति-सुख ) प्रिय नहीं ? । परन्तु पर्वत समान महा पुरुष भी चल-चित्त पन से धर्म के अनुष्ठान में उत्साह छोड़ कर गिरते दृष्टि आते हैं । तथापि तुम्हारे महा मतिमान् पिता ने तो कुछ ऐसा साहस किया है कि-जो महान् साहसियों के मन को भी चमत्कृत कर डालता है। तथा इस नाटककार को तो आपके पिता का परोपकारी होने से वास्तविक धर्माचार्य के समान आपने विशेष पूजना चाहिये ।
यह सुनकर राजा का शोक कुछ कम होने से वह नीतिलता बढ़ाने में सजल मेघ समान राजा उक्त नाटककार को पूज कर रजा देने लगा ।
अब वह बर्फ और हार के समान श्वेत अनेक नये विहार (जिन - मंदिर) बनवाने लगा और बड़े गौरव के साथ भक्ति पूर्वक साधर्मिवात्सल्य करने लगा । तथा वह जिनशासन की उन्नति करता हुआ मुग्धजनों को धर्म में स्थिर करने लगा, और वह प्रायः सामायिक, पौषध आदि धर्म में ( सदैव ) लगा ही रहता था ।
अब श्रीप्रभराजा को सदैव धर्म में लगा हुआ और जीव
प्राप्त करने की इच्छा से रहित जानकर अरिदमन राजा उसके