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धर्मरत्न की योग्यता पर
देश में उपद्रव करने लगा । दूत के मुख यह समाचार जान कर श्रीप्रभराजा ने दूत के द्वारा ही उसे कहलाया कि हमारी सीमा के कतिपय गांवों की झोपड़ियां लूटकर तू अपने पूर्वजों की स्थापित की हुई त प्रीति को खूब बिगाड़कर क्यों दुर्जनता कर के इस प्रकार मेरा अनिष्ट करता है ?
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कहा भी है कि वे सत्पुरुष धन्य है कि - जिन का स्नेह अभिन्नमुख हो प्रतिदिन वृद्धि पाता हुआ ऋण के समान पुत्रों में भी चालू रहता है | अतः इस अपराध से अब भी अलग हो । तेरा यह अपराध मैं क्षमा करता हूँ। क्योंकि - स्नेह रूप झाड़ को तोड़ने के लिये मैं अगुआ नहीं होता । यह सुनकर अरिदमन राजा उस दूत के प्रति हंसता हुआ बोला कि हे दूत ! तू मेरी ओर से अपने स्वामी को इस भांति कहना कि
हे पार्थिव ! तू' ने तो विस्तार से धर्म के कार्य शुरु किये हैं । अतः भूमि सम्बन्धी यह अनर्थकारी माथाफोड़ बन्द रखना चाहिये, और जो इसे भी तू चाहता हो तो, इस धर्म कर्म को छोड़, क्योंकि - सिर मुंडाना और केश समारना ये दोनों एक ही स्थान में कैसे हो सकते हैं ? किन्तु जो तू ने केवल लोगों राजी करने के लिये ही यह धर्म आरम्भ किया हो तो, निश्चित रह, मैं तेरे देश को अब नहीं लूंगा ! तथा पूर्व स्नेह से बात करना यह तो विजय के इच्छुक राजाओं को महान् दूषण रूप है, अथवा पूर्ण असामर्थ्य है ।
इस प्रकार दूत के मुख से सुनकर श्रीप्रभ राजा ने खूब क्रुद्ध होकर सेवकों के द्वारा सहसा रणभेरी बजवाई । उसका शब्द सुन कर तुरन्त एकत्र हुई चतुरंग सेना लेकर शत्रु पर चढ़ा, और क्रमशः देश की सीमा पर आया । तब रणरसिक अरिदमन राजा