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श्रीप्रभ महाराजा की कथा
इस प्रकार इन्द्र के कहे हुए वचनों पर सन्देह करके विजय और वैजयन्त नामक दो देव शीघ्र ही पृथ्वी की ओर चले । (इस समय सर्व सभासद विस्मय से विकसित नेत्रों द्वारा देखते हुए 'अब क्या होगा' सो जानने के हेतु ध्यान देकर सुनने लगे | वे दोनों देव तदनन्तर ब्राह्मण का रूप धर कर राजा का रूप देखने को आतुर होकर राजमहल के द्वार के पास खड़े रहे।
इस समय सनत्कुमार अपने अलंकार और कपड़े उतार कर अंग में खूब अभ्यंग करवाकर स्नान करने को बैठा था । इतने में द्वारपाल ने द्वार पर दो ब्राह्मणों के खड़े रहने का समाचार कहा । तब न्यायशाली उक्त चक्रवर्ती ने उनको उस समय भी अन्दर बुला लिया । तब उस राजराजेश्वर का अनुपम रूप देखकर, विस्मित हो, सिर धुनते हुए वे दोनों देव मन में इस भांति विचार करने लगे।
F. इसका यह कपाल शुक्लाष्टमी के चन्द्र को भूला देता है और कान के किनारे तक पहुँची हुई उसकी आंखें नीलोत्पल को जीतने के समान है। इसके दोनों होठ पके हुए बिम्बीफल की कान्ति के विकाश को हराते हैं. दोनों कान सीप को जीतने के समान है और कंठ पांचजन्य शंख का विजय करता है। इसकी दोनों भुजाएं हस्तीराज की सूड के आकार को तिरस्कृत करती हैं, तथा वक्षःस्थल मेरु की चौड़ी शिलाओं की शोभा को लूटने के समान है।
इसके हाथ-पैरों के तलुवे सचमुच अशोक के पल्लबों को तर्जना करें वैसे हैं, अन्य अधिक क्या कहा जाय ? इसके सर्व अंगों की शोभा वाणी को अगोचर है । इसकी लावण्य रूप नदी का कितना तीक्ष्ण प्रवाह है कि-जिससे चन्द्रिका में जैसे ताराओं