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श्रीप्रभ महाराजा की कथा
जिनेश्वर प्रणीत आगम के विशेष विज्ञान का क्रीड़ाघर समान था, सद्बुद्धि वृद्ध जनों के सेवन रूप सरोवर में हंस समान था, विनय नीति में चित्त रखने वाला था, कृतज्ञतारूप नदी का सागर था, परहित करने में उद्यत रहने वाला था, और करने के कामों में यथोचित् लक्ष देने वाला था । . ___ वहां एक दिन भुवनभानु नामक केवलज्ञानी गुरु पधारे, उनको नमन करने के लिये राजा, पुत्र और सामन्तादिक को साथ लेकर वहां आया । वह तीन प्रदक्षिणा कर महान् भक्तिपूर्वक गुरु को नमन करके उचित स्थान में बैठा। तब यतोश्वर देशना देने लगे।
इस अनन्त भवरूप वन में भटकता हुआ जीव अनेक दुःख सहता हुआ जाति और कुल आदि से युक्त मनुष्य भव को महाकठिनता से पाता है । उसे पाकर हे भव्यों ! तुम सकल दुःख नाशक जिनधर्म करो । वह धर्म दो प्रकार का है:-यतिधर्म और गृहिधर्म । वहां पहले यतिधर्म में पांच यम (महाव्रत) हैं उन प्रत्येक की पाँच पाँच भावनाएं पालने की हैं। वे पांच यम इस प्रकार हैं:-हिंसा का त्याग, अलीक का त्याग, स्तेय का त्याग, अब्रह्म का त्याग और परिग्रह का त्याग । ईर्या-आदान और एषणा समिति, मनोगुप्ति और देखकर आहार-पाणी ग्रहण करने से पहले व्रत का निरतिचार पालन करना चाहिए । हास्य-क्रोधलोभ-भय त्यागने से तथा विचार कर बोलने से मनिमान पुरुष ने दूसरे सूनृत रूप यम का पालन करना चाहिये।
अस्तेय रूप यम की पांच भावनाएं ये हैं:-अवग्रह मांगना, ठीक देखभान विचार करके अवग्रह मांगना, निरन्तर गुरु की अनुज्ञा लेकर भात पानी काम में लेना । साधर्मी से अवग्रह मांगना और उसकी मर्यादा करना । इस प्रकार पांच भावनाएं हैं।