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धर्मरत्न के योग्य
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दुविहंपि धम्मरयणं तरइ नरो धित्तुमविगलं सोउ । जस्सेवी सगुणरयण-संपया सुत्थिया अस्थि ॥ १४० ॥
मूल का अर्थ- दोनों प्रकार के धर्मरत्न को भली-भांति वही मनुष्य ग्रहण कर सकता है । जिसके पास इक्कीस गुण की संपदा कायम हो ।
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टीका का अर्थ - एक प्रकार के नहीं, बल्कि दोनों प्रकार के धर्मरत्न को अविकल अर्थात् पूर्णतः वही नर ( यहां नर शब्द जातिवाचक है, जिससे पुरुष हो नहीं, किन्तु नरजाति का प्राणी समझो ) ग्रहण कर सकता है । जिसको श्रीप्रभ महाराजा के समान इक्कीस गुणरत्ल संपत् अर्थात् "अक्खुद्दो रुव पगइसोमो " इत्यादि शास्त्र पद्वति में कहे हुए इक्कीस गुण रूप माणिक्यों की विभूति सुस्थित हो अर्थात् कि दुर्बोध आदि से अदूषित होने से उपद्रव रहित हो ।
कोई पूछेगा कि - इक्कीस गुण वाला हो, वह धर्म - रत्न के योग्य है, यह तो पूर्व में कहा ही है, तो पुनः यह क्यों कहते हो ?
सत्य है, पूर्व में केवल योग्यता ही कही है, जैसे कि बाल्यावस्था में वर्त्तमान राजपुत्र भी राज्य को योग्य कहलाता है । और अब उसे समर्थ करना भी बताते हैं जैसे कि बड़ा हुआ राजपुत्र इतनी उमर में राज्य कर सकता है ।
श्रीप्रभ महाराजा की कथा इस प्रकार है:
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राजमहलों की उज्वल प्रभा तथा निरंतर प्रसारित धूप के धूम्र से गंगा तथा यमुना के संगम को जीतने वाली विशाला नामक नगरी थी । वहां जिसका जाय के फूल का खिली हुई कलिका के समान निर्मल यश देवलोक पर्यंत ( पहुँचता ) था,