Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 154
________________ गुरु अवज्ञा का वर्जन १४७ कुमति रूप अंधकार का विध्वंस करने के लिये सूर्य समान, श्रेष्ठ लब्धियों के भंडार और दश पूर्व के धारण करने वाले, श्रीमान् वत्र मुनावर चिरकाल तक जिन-शासन को खूब दीप्त करने लगे। - इस प्रकार वज्रस्वामी की कथा पूर्ण हुई। इस प्रकार गणाधिक शिष्य से गुरु का गौरव रहता है तो भी उस शिष्य ने गुणाधिक होकर भी गुरु अपने से हीन है, यह सोच कर उनकी अवमानना न करना चाहिये | वही कहते हैं सविमसंपि जयंतो तेसिमवन्नं विवजए सम्म । तो दंसणसोहीअो सुद्धचरणं लहइ साहू ॥१३८॥ मूल का अर्थ- सविशेषपन से उद्यत होते भी जो शिष्य उनको अवज्ञा का भली-भांति वर्जन करता है, तो दर्शनशुद्धि होने से वह साधु शुद्ध चारित्र पाता है। ___टीका का अर्थ- सधिशेषतः अर्थात् सरस रीति से किन्तु (अपिशव्द से समान रीति से वा हीन रीति की बात तो दूर रहे) यतमान अर्थात् तदावरणी कर्म के क्षयोपशम से सूत्रार्थ के अध्ययन में तथा तपश्चरण आदि उत्तम अनुष्ठान में प्रयत्नशील शुद्ध पारेणाम वाला भाव साधु गुरु की अभ्युत्थान आदि न करने रूप अवज्ञा का भली-भांति वर्जन करता है और उससे दर्शन-शुद्धि के कारण से वह भाव मुनि अकलंक चारित्र को पाता है। यहां आशय यह है कि-सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र के कारण है। क्योंकि आगम में इस प्रकार कहा है कि- सम्यक्त्ववंत ही को ज्ञान होता है और ज्ञान बिना चारित्र के गुण होते नहीं, अगुणी को मोन नहीं और मोक्षहीन को निवाण नहीं।

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