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वज्रस्वामी की कथा
पर अपने श्रीमान् गुरु तो सबसे अधिक भाग्यवान् हैं कि- जिनके ऐसा सर्व श्रत का निवासघर और विजयी शिष्य है। इस शिष्य के हाथ का सहारा पाकर श्री गुरु की वृद्ध हुई कीर्ति अब शनैः शनैः (अखिल ) जगत् में फिरेगी।
अब गुरु ने सोचा कि- इतने दिनों में मुनियों को वन के गुण ज्ञात हो गये होंगे । यह सोच वे हर्षित हो, वहां वापस आये तब भक्तिपूर्वक मुनियों ने उनको वन्दना करी, तो सूरि के स्वाध्याय के निर्वाह के विषय में पूछने पर, उन्होंने सब वृत्तान्त कहा और पुनः गुरु को नमन करके वे विनन्ती करने लगे कि- हे भगवन् ! वज्र ही हमारे वाचनाचार्य होवें ।
गुरु बोले कि- समय पाकर यह सवका गुरु होगा । अभी यह बालक है, तथापि गुणों से वृद्ध होने से अवश्य माननीय है। इसीसे हम परग्राम गये थे और वज्र को तुम्हें आचार्य रूप में सौंपा था कि- जिससे तुम इसके गुणों को जानो।
तथापि अभी इसको वाचनाचार्य की पदवी देना उचित नहीं, कारण कि- अभी इसने कानों से श्रत ग्रहण किया है, गुरु के मुख से श्रुत ग्रहण नहीं किया । पश्चात् श्रु तसारज्ञ गुरु "अमुक वय में सिखाना उचित है" इस कल्प को छोड़ कर उत्सारकल्प करके उसे अर्थ सहित सिखाने लगे।
तब गुरु-साक्षी से कुशाग्र बुद्धि बन्न मुनि गुरु के दिये हुए सर्व श्रत को मातृ का पद ( वर्णमाला) के समान ग्रहण करने लगे। इस भांति वज्रकुमार ऐसे अ त ज्ञानी हुए कि- जिससे वे सिंहगिरि के भी चिरकाल के संदेह रूप रज को हरने के लिये पवन समान हो गये । पश्चात् समयानुसार आचार्य पद पाकर भवनाशक