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भावसाधु का स्वरूप
अब सम्यक्त्व तो गरु का बहुमान करने वाले ही को होता है, इससे दुःकरकारी होकर भी उनकी अवज्ञा न करते उनका आज्ञाकारी होना चाहिये । क्योंकि कहा है कि-षष्ठ, अष्टम, विगेरे तथा अर्धमासक्षपण और मासक्षपण करता हुआ भी जो गुरु का वचन नहीं माने तो अनन्त संसारी होता है।
अब साधु के लिङ्गों का निगमन करते हुए उसका फल करने की इच्छा से कुछ कहते हैंइय सत्तलक्खणधरो होइ चरित्ती तो य नियमेण । कल्लाणपरंपरलाभ-जोगो लहइ सिवसुक्खं ॥१३९।।
मूल का अर्थ- इस प्रकार सात लक्षण को धारण करने वाला चारित्रीय होता है और वही निश्चयतः कल्याण-परम्परा के लाभ के योग्य से शिवसुख पाता है। ____टीका का अर्थ-इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थ है, जिससे ऐसे अर्थात् पूर्वोक्त रीति से सकल मार्गानुसारिणी क्रिया- धर्म में प्रवर श्रद्धा-सरल भाव से प्रज्ञापनीयता-क्रिया में अप्रमाद, शक्यानुष्ठान का आरम्भ-सख्त गुणानुराग और पूर्णतः गुरु की आज्ञा का आराधन । इन सात लक्षणों का धारण करने वाला हो, वह चारित्री अर्थात् भाव साधु होता है । वह भाव साधु ही- न कि-दूसरा, कल्याण-परम्परा अर्थात् सुदेवत्व, सुमनुष्यत्व आदि रूप उसका लाभ अर्थात् प्राप्ति उसके योग से अर्थात् सम्बन्ध से शिवसुख अर्थात् सिद्धि सुख पाता है । ___ श्रावक और साधु सम्बन्धी ऐसा दो प्रकार का धर्मरत्न कहा । अब कौन, कैसे इसे कर सकते हैं, सो कहते हैं