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आचार्य के छत्तीस गुण
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जो आर्य देश में हुआ हो, उसकी भाषा सुख से समझी जा सकती है, अतः देश का ग्रहण किया ? कुल सो पिता सम्बन्धी इक्ष्वाक्वादिवंश, उसमें जन्मा हो, वह डाले हुए भार को उठाने में थकता नहीं । जाति सो माता सम्बन्धी जानो। जातिवन्त होता है, वह विनयादि गुणों से युक्त होता है। जहां आकृति होती है वहां गुण होते हैं, इस कहावत के अनुसार रूप का ग्रहण किया है । संघयण और धीरज वाला व्याख्यान आदि में थकता नहीं। अनाशंसी होता है सो श्रोताओं से वस्त्रादि की इच्छा नहीं रखता । अविकत्थन होता है सो हितमितभाषी रहता है । अमायो होता है, सो विश्वास करने योग्य रहता है । स्थिरपरिपाटी इसलिये कहा है कि-स्थिर परिचित ग्रंथवाले के सूत्रार्थ गल नहीं जाते । ग्राह्यवाक्य होने से सबको आज्ञा में चला-चला सकता है। मध्यस्थ होने से शिष्यों पर समचित्त रख सकता है। देश, काल, भाव का ज्ञाता होने से सुखपूर्वक गुणवाले देशादिक में विचर सकता है । आसन्नबुद्धि होने से परवादि को उत्तर देने में समर्थ रहता है।
अनेक देशों की भाषाओं का ज्ञाता होने से, अनेक देश के शिष्यों को सुखपूर्वक समझा सकता है । ज्ञानादिक पांच आचारवाला होने से , उसका वचन श्रद्ध य माना जाता है। सूत्र अर्थ तथा तदुभय की विधि का ज्ञाता होने से उत्सर्ग तथा अपवाद के प्रपंच को यथावत् बता सकता है । आहरण अर्थात् दृष्टान्त-हेतु अर्थात् अन्वय-व्यतिरेकि साधन-कारण अर्थात् दृष्टान्त रहित उपपत्ति मात्र और नय सो नेगमादिक नय, इन सबमें में कुशल होने से सुख से उनको प्रयुक्त कर सकता है। ग्राहणाकुशल होने से विविध युक्तियों से शिष्यों को बोध सकता है। स्वसमय और परसमय का ज्ञाता होने से, सुखपूर्वक उनका स्थापन