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भावसाधु का सातवां लिंग
गुरुपयसेवानिरओ गुरुपाणाराहणंमि तलिच्छो । .. चरणभरधरणसत्तो होइ जई नन्नहा नियमा॥१२६ ।
मूल का अर्थ-गुरु के चरण की सेवा में लगा रहकर गुरु की आज्ञा का आराधन करने में तत्पर रहे और चारित्र का भार उठाने में समर्थ हो, वही यति है अन्यथा कदापि नहीं। ___ यहां कोई शंका करे कि- पूर्वाचार्यों ने चारित्रियों के छः ही लिङ्ग कहे हैं। क्योंकि कहा है कि- मार्गानुसारी हो, श्रद्धावान् हो, प्रज्ञापनीय हो, क्रिया में तत्पर रहने वाला हो, गुणरागी हो और शक्यारंभ वाला हो वह चारित्री है। ___ अतः यह सातवां गुर्वाराधन रूप भाव-साधु का लिङ्ग कहां कहा हुआ है ?
उत्तर- चौदह सौ प्रकरण रूप प्रासाद के सूत्रधार समान प्रभु श्री हरिभद्रसूरि ने उपदेशपदनथ में यह लिङ्ग भी कहा है। भाग्यशाली भाव-साधु के ये सब लक्षण हैं और गुरु की आज्ञा का संपादन करना, यह यहां गमक लिङ्ग है । इतना उत्तर बस है। __ अब प्रकृतसूत्र की व्याख्या करते हैं । गुरु छत्तीस गुण युक होता है । यथा:- देश, कुल, जाति और रूपवान् , संघयण वाला, धीरज पाला, अनाशंसी, अविकत्थन, अमायी, स्थिरपरिपाटी वाला, गृहीतवाक्य, जितपर्षद्, जितनिद्र, मध्यस्थ, देश-काल और भाव का ज्ञाता, आसन्नलब्धप्रतिभ, नानाविध देश-भाषा का ज्ञाता, पांच प्रकार के आचारों में लगा हुआ, सूत्र, अर्थ व तदुभय का ज्ञाता, उदाहरण-हेतु-कारण और नयनिपुण, ग्राहणाकुशल, स्वसमय-परसमय का ज्ञाता, गंभीर, दीप्तिमान् , शिव और सौम्य इस भांति सैकड़ों गुणों से जो युक्त हो, वह प्रवचन का सार कहने के योग्य होता है।