________________
११६
आचार्य के छत्तीस गुण
अभावित है, सो जानना । और वस्तुज्ञान याने यह राज, अमात्य वा सभ्य भद्रक है वा अभद्रक है, सो जानना। ____संग्रह याने स्वीकार करना । तत्संबन्धी सो आठवीं संपत् है। उसके चार प्रकार ये हैं:-पीठ-फलकादिक सम्बन्धी । बालादियोग्य-क्षेत्र संबंधी । यथासमय स्वाध्याय संबंधी और यथोचित् विनय आदि सम्बन्धी । (स्वीकार करने की समझ)
तथा विनय के चार भेद हैं:-आचारविनय, श्रु नविनय विक्षेपणविनय, और दोषनिर्घातविनय, इस भांति विनय में चार प्रकार की प्रतिपत्तियां हैं। उसमें आचार, विनय, संयम, तप, गण और एकाकी विहार सम्बन्धी चार प्रकार की सामाचारी रूप से है।
वहां पृथ्वीकाय रक्षा आदि सत्रह पदों में स्वयं करना, दूसरे से कराना, डावाडौल होते हुए को स्थिर करना और यतमान को उत्तेजना देना, यह संयम सामाचारी है । पाक्षिक आदि में चौथभक्त आदि तप करने में स्वपर को प्रवृत्त करना सो तप सामाचारी । बालग्लानादिक के वैयावृत्त्य आदि में धीमे पड़ते गच्छ को प्रवृत्त करना, तथा स्वयं भी उद्यत होना सो गण सामाचारी । एकाकि विहार की प्रतिमा स्वयं अंगीकार करना तथा दूसरों को अंगाकार कराना सो एकादि विहार सामाचारी ।
श्रत विनय के चार प्रकार ये हैं:-सूत्रग्राहणा, अर्थश्रावणा. हितवाचना अर्थात् योग्यतानुसार बंचाना और निशेषवाचना अर्थात् परिपूर्ण बंचाना। - विक्षेपणाविनय के चार प्रकार ये हैं:-मिथ्यात्व का विक्षेपण कर, मिथ्यात्वदृष्टि को स्वमत में लाना। आरम्भ का विक्षेपण करके, सम्यगदृष्टि को चारित्र में चढ़ाना। धर्म से पतित हुए को धर्म में स्थापित करना और जिसने चारित्र अंगीकार किया हो