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गुरुकुल वास का स्वरूप
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न कि केवल समीप ही रहना । उसमें तत्पर रहकर निष्ठुर वचनों से निर्भत्सित हो, तो भी गुरु को छोड़ने की इच्छा न करे-किन्तु गुरु में बहुमान ही रखे । जैसे किः
अहित आचरणरूप घाम को दूर करने वाला गुरु के मुखरूप मलयाचल में से निकला हुआ वचन रस रूप चंदन का स्पर्श, भाग्यशाली ही के ऊपर पड़ता है। लज्जा, संयम, ब्रह्मचर्य तथा कल्याणभागी जन को शुद्धि का स्थान है । जो गुरु मुझे सदैव मिलते प्राश्चित की शिक्षाएं देते हैं, उनको मैं बारम्बार पूजता हूँ इत्यादि । तथा गुरु की आज्ञा का आराधन करने में अर्थात् आदेश बजाने में तल्लिप्सु अर्थात् उसी आदेश को प्राप्त करने का इच्छुक हो, अर्थात् गुरु की आज्ञा की राह देखता हुआ पास ही खड़ा रहे, ऐसा जो हो, वह सुविहित पुरुष चारित्र का भार उठाने में समर्थ होता है । इससे विपरीत होता है, वह निश्चयपूर्वक नहीं होता।
ऐसा निश्चय किस पर से जाना जाता है, सो कहते हैं:सव्वगुणमूलभूत्रो भणियो आयारपढमसुत्ते जं। गुरुकुलवासोऽवस्सं वसिज्ज तो तत्थ चरणत्थी ॥१२७॥
मूल का अर्थ-आचारांग के प्रथम ही सूत्र में गुरु-कुलवास सर्व गुणों का मूलभूत बताया हुआ है। अतः चारित्रार्थी पुरुष ने अवश्य गुरुकुलवास में वसना चाहिये।
टीका का अर्थ-सर्व गुण अठारह हजार शीलांगरथरूप जानो । उनकी गिनती करने का उपाय इस प्रकार है:-योग, करण, संज्ञा, इन्द्रिय, पृथ्यादिक तथा श्रमणधर्म इन पदों से अठारह हजार शीलांग उत्पन्न किये जा सकते हैं । उनकी स्थापना इस प्रकार है
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