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शैलक-पंथक का दृष्टांत
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कर्म बहुत चिकने, कुटिल व वज्र समान कठिन होवे, तो सचमुच ज्ञानवन्त पुरुष को भी उन्मार्ग में ले जाते हैं। कर्मों का बल देखों कि- श्रत के बल से हथेली में रहे हुए मोती के समान जगत को जानते हुए भी उसमें पड़ते हैं । राज - ऋद्धि छोड़ मोक्षार्थी हो ये प्रव्रजित हुए हैं, तथापि इस समय 'अति प्रमाद से उस प्रयोजन को भूल गये हैं। __ ये सूत्र के अवसर पर सूत्र नहीं देते, पूछने वालों को अर्थ नहीं कहते और आवश्यकादिक की चिन्ता छोड़, निद्रा को अधिक पसन्द करते हैं। वैसे ही गच्छ को सारण, वारण, प्रतिचोयना आदि लेशमात्र भी नहीं कहते, अतः सारणा रहित गच्छ में क्षण भर भी रहना उचित नहीं। ___आगम में भी कहा है कि-जहां सारणा, वारणा और प्रतिचोयना न हो. उस गच्छ को अगच्छ मानकर संयमार्थियों ने छोड़ देना चाहिये। वैसे ही यह अपने धर्माचरण का हेतु होने से बहुत उपकारी है, अतः इसे छोड़ना कि पकड़ रखना, सो अपन स्पष्टतः जान नहीं सकते अथवा कारण बिना नित्यवास करने का अपने को क्या काम है ? अतः इन गुरु की वेयावृत्य के लिये पंथक साधु को यहां छोड़कर व इनकी आज्ञा लेकर अपन सब ने उद्यत होकर विचरना चाहिये और जब तक यह अपने को पहिचाने, तब तक कालहरण करना उचित है। - यह सोच पंथक साधु को गुरु के पास छोड़कर वे सर्व मुनि अन्यत्र सुखपूर्वक विचरने लगे। अब पंथक मुनि भी गुरु का यथोचित वेयावृत्य करते तथा उत्तम योग में युक्त रहकर अपनी क्रिया भी सदैव परिपूर्ण रीति से करते रहते थे। पश्चात् कार्तिक चातुर्मास के दिन आचार्य स्निग्ध मधुर खाकर सर्व काम छोड़कर सर्वाग से लम्बे होकर सोते थे।