________________
१३६
-
शैलक-पंथक का दृष्टांत
इतने में आवश्यक कर खामणा के निमित्त पंथक साधु ने विनय रीति में निपुण होकर मस्तक से उनके पैरों में स्पर्श किया। तब राजर्षि क्रुद्ध होकर बोले कि- आज यह कौन निर्लज मेरे पैर को छुकर मेरी निद्रा में बाधा पहुँचाने को उद्यत हुआ है ? तब सूरि को क द्ध हुए देख पंथक मधुर वाणी से बोला कि- चौमासी खामणा करने के हेतु मैने आपको छआ है। अतः एक अपराव क्षमा करिये, पुनः ऐसा नहीं करूगा । क्योंकि-जगत में उत्तम पुरुष क्षमाशील होते ही हैं।
पंथक मुनि का यह वचन सुनते ही सूरि का अज्ञान इस प्रकार नष्ट हो गया जैसे कि- सूर्योदय से अंधकार नष्ट हो जाता है । अब वे अपने को बारम्बार निन्दित कर विशेष संयम में उद्यत हो शुद्ध परिणाम से पंथक मुनि को बारंबार खमाने लगे पश्चात् दूसरे दिन मंडक राजा को पूछकर वे दोनों शैलकपुर से निकल कर उग्र विहार से विचरने लगे। यह समाचार सुन शेष मुनिगण भी उनको आ मिले । अब वे विधिपूर्वक चिरकाल तक विचरकर पुण्डरीकगिरि ( सिद्धगिरि ) पर चढ़े।
वहां दो मास का अनशन कर शैलक महर्षि शैलेशीकरण कर पांच सौ साधुओं सहित मुक्ति पद को प्राप्त हुए |
इस प्रकार उज्वल चारित्र वाला पंथक साधु का निर्मल वृत्तांत सुनकर, हे साधु जनों ! तुम सम्यक् ज्ञानादिक गुण-युक्त गुरुकुल को इस भांति यथारीति सेवन करो कि- जिससे वास्तविक संयम में शिथिल होते गुरु को भी किसी समय स्फुरित गुणश्रेणीवान् होकर संसार पार कर सको।
इस प्रकार शैलक-पंथक साधु का कथानक पूर्ण हुआ।