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गुरु अवज्ञा का फल
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"जिसको जहां तक तप प्रायश्चित आता है, वहां तक वह एक व्रत का भी अतिक्रम नहीं करता । किन्तु मूल प्रायश्चित आने पर एक व्रत का अतिक्रम करते भी पांचों व्रतों का अतिक्रम जानो" ।
इस प्रकार बकुश और कुशीलों में दोपलव नियमभावी है, इससे जो उससे यति वर्जनीय हो तो अवर्जनीय कोई भी न रहेगा, और उसके अभाव में तीर्थ का भी अभाव हो जावेगा ।
इस उपदेश का फल कहते हैं
इय भावियपरमत्था मज्झत्था नियगुरु न मुं'चंति । सब्वगुण संपयोगं प्रध्यायमि वि श्रपिच्छंता ॥१३६॥
मूल का अर्थ - इस प्रकार परमार्थ को सम के हुए मध्यस्थजन अपने गुरु को नहीं छोड़ते। क्योंकि सर्व गुणों का योग अपने । में भी वे नहीं देखते ।
टीका का अर्थ - इस प्रकार पूर्वोक्त रीति से परमार्थ अर्थात् वास्तविक बात को जानने वाले अर्थात् मन में परिणमित करने वाले और मध्यस्थ अर्थात् अपक्षपाती जन अपने गुरु जो कि-मूलगुण रूप मोती के सागर हैं उनको बिलकुल नहीं छोड़ते, क्योंकिसर्वगुणसंप्रयोग अर्थात् समस्त गुणों की सामग्री अपने में भी नहीं दिखती तथा गुरु का त्याग करने वाला निश्चयतः गुरु की अवज्ञा करता है और उससे अनर्थ होता है । सो आगम के प्रमाण से बताते हैं
एवं अन्नं वृत्त सुत्तंमि पावसमणु नि । महमोहबंध विखितो अप्पडितप्पंतो ॥१३७॥