Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 150
________________ गुरु अवज्ञा का फल १४३ मूल का अर्थ- ऐसे गुरु की हीलना करने वाले, निन्दा करने वाले तथा उनकी सम्हाल नहीं लेने वाले को सूत्र में पापश्रमण तथा महामोह का बांधने वाला कहा है। टीका का अर्थ- इसे याने प्रस्तुत गुरु को अवमानने वाला अर्थात् हीलने वाला, साधु सूत्र में अर्थात् श्री उत्तराध्ययनसूत्र में पापश्रमण अर्थात् नीचयति कहा हुआ है । वह सूत्र यह है "जिन आचार्य तथा उपाध्यायों ने श्रत और विनय सिखाया उन्हीं की जो बाल निन्दा करता है, सो पापश्रमण कहलाता है । आचार्य और उपाध्याय की जो भली-भांति सेवा-भक्ति न करे, पूजा न करे और स्तब्ध हो रहे, सो पापश्रमण कहलाता है" तथा उनकी खिसा याने निंदा करता हुआ तथा प्रतितर्पण अर्थात् वैयावृत्य आदि में आदर न करता हुआ महामोह अर्थात् भारी मिथ्यात्व भी बांधता है। अपिशब्द सूत्रान्तर का प्रमाण बताता है। क्योंकि-सूत्रान्तर में अर्थात् आवश्यक नियुक्ति में तीस महामोहनीय के स्थानों में इस प्रकार कहा जाता है। “जो मन्द-बुद्धि पुरुष आचार्य और उपाध्याय की निन्दा करता है तथा वह ज्ञानियों की भली-भांति वैयावृत्त्य भक्ति नहीं करता, सो महामोह बांधता है"। यह क्रिया पद वहां अन्त में कहा हुआ है। कोई पूछे कि- गुरु के असमर्थ होते उनका शिष्य जो अधिकतर यतना, तप तथा श्रु ताध्ययन आदि करे, तो वह युक्त है, कि- गुरु की लघुता होने के कारण से अयुक्त है ? - इसका उत्तर यह है कि-गुरु की अनुज्ञा से वह युक्त ही है। क्योंकि-वह तो गुरु के गौरव ही का कारण है. क्योंकि-शिष्य के अधिक गुणी होते गुरु का गौरव ही होता है। श्री वनस्वामी तथा सिंहगिरि गुरु के समान।

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