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गुरु को नहीं छोड़ने में गुण
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ऐसा करने से साधुओं को क्या लाभ होता है, सो कहते हैं:एवं गुरुबहुमानो कयन्नुया सयलगन्छगुणबुड्ढी । अणवत्थापरिहारो हुति गुणा एवमाईया ।।१३३।।
मूल का अर्थ-ऐसा करने से गुरु का बहुमान, कृतज्ञता, सफल गच्छ में गुण को वृद्धि, और अनवस्था का परिहार आदि गुण होते हैं। ___टीका का अर्थ-ऐसे अर्थात् मूलगुण सहित गुरु को नहीं छोड़ते, तथा उन्हें सन्मार्ग में उद्यम कराते यति को गुरु का बहुमान अर्थात् मानसिक प्रीति का अतिशय-दशाव होता है। तथा कृतज्ञता हुई मानी जाती है और पुरुष का यह गुण लोक में भी प्रधान माना जाता है । कहावत है कि:-वही कलाकुशल है, वही पण्डित है और वही सकल शास्त्र का ज्ञाता है कि-जिसमें सब गुणों में श्रेष्ठ कृतज्ञता विद्यमान है। तथा लोकोत्तर में भी यह गुण, इक्कीस गुणों ही में आया हुआ है। तथा सकल गच्छ के गुणों को वृद्धि याने अधिकता किया माना जाय सो। इस प्रकार कि-भलीभांति आज्ञा में चलने वाले गच्छ के ज्ञानादि गुणों को गरु बढ़ाता ही है । परन्तु जो वे शिष्य पढ़ाने, गणाने तथा भक्तपान से पोषण करने पर पंख आये हुए हंस के समान दशों दिशाओं में भाग जावे तो, उनको खलुक प्राय जानकर गुरु केवल शिक्षा देते हैं वैसा नहीं किन्तु कालिकाचार्य की तरह त्याग भी देते हैं। तथा अनवस्था अर्थात् मर्यादा की हानि उसका परिहार किया माना जाता है, अर्थात् कि-जो एक गुरु को उनके मूलगण रूप महाप्रसाद धारण करने में स्तम्भ रूप होते हैं उसको अल्प दोष से दुष्ट होने के कारण छोड़ देता है | उसको दूसरा भी नहीं रुचता क्योंकि-काल का.अनुभव ही ऐसा है कि-सूक्ष्म दोप प्रायः परिहरना कठिन है, जिससे अति अरोचकता से “ स्वच्छन्द