Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 145
________________ १३८ गुरु को छोड़ने में दोष गति और मति से चलते हुए अकेले को धर्म कहां से होय तथा अकेला वह क्या कर सकता है तथा अकार्य को कैसे छोड़ सकता है ? व अकेले को सूत्रार्थ कहाँ से आवे तथा प्रतिपृच्छना वा चोयना कहाँ से मिले ? वैसे ही विनय, वैयावृत्य तथा मरणान्त समय आराधना भी वह कैसे कर सकता है”। ___ अकेला फिरता है वह एषणा का भंग करता है और स्वच्छंद फिरती प्रमत्तस्त्रियों का उसे नित्य भय रहता है, किन्तु बहुतों में रहने से अकार्य करने का मन करने पर भी उसे नहीं कर सकता है। अकेला मलमूत्र में, वमन में और पित्त के उछाले से आई हुई मूळ में मुझा जाता है, वैसे हो हाथ में पिघलो हुई वस्तु का पात्र उठाते या तो गिरा दे या उड्डाह कराता है तथा एक ही दिन में जीव को शुभ अशुभ परिणाम आते रहते हैं । अतः अशुभ परिणाम होने पर अकेला हो तो आलंबन पकड़कर (संयम को भी कभी कभी) छोड़ देता है। इत्यादिक प्रमाणों से निषिद्ध एकादिपन को भी जो पकड़े तो उसे स्वेच्छाचार से सुखी हुआ देखकर दूसरा भी वैसा ही करने लगता है। ऐसी अनवस्था गुरुसेवक होने से दूर होती है। इत्यादि अन्य भी गुरु-ग्लान-बाल-वृद्धादिक के विनय, वैयावृत्य आदि तथा सूत्रार्थ को प्राप्ति और स्मरण आदि अनेक गुण होते हैं । परन्तु इससे विरुद्ध चलने से क्या होता है, सो कहते हैं:इहरा वुत्तगुणाणं विवज्जो तह य अत्तउक्करिमो। अप्पच्चरो जणाणं बोहिविघायाइणो दोसा । १३४॥ मूल का अर्थ-इतरथा उक्त गुणों का विपर्यय होता है, अपना उत्कर्ष होता है, लोगों को अविश्वास होता है और बोधि का विघात होता है इत्यादि दोष होता है।

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