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पांच प्रकार के निग्रंथ का स्वरूप
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टीका का अर्थ-इतरथा अर्थात् महात्रतरूप महान् भार उठाने में धवल गुरु का त्याग करते उक्त गुणों का विपर्यय होता है, अर्थात् अबहुमान, अकृतज्ञता, सकल गच्छ के गुणों की अवृद्धि
और अनवस्था आदि दोष होते हैं, तथा आत्मोत्कर्ष अर्थात् अपने में सावधानता का अभिमान वा जो अनथे की परम्परा का कारण है । सो गुरुकुल को त्याग करनेवाले को होता है । तथा लोगों को अप्रत्यय अर्थात् कि-इन परस्पर में अलग हुए और एक दूसरे के अनुष्ठान को दूषित ठहराने वालों में कौन सत्य व कौन असत्य सो ज्ञात नहीं होता। ऐसा अविश्वास होता है । भला, उससे क्या दोष है ? उसका यह उत्तर है कि, उससे बोधि-विधात अर्थात् परभव में जिनधर्म को प्राप्ति का अभाव असत्य सेवियों को होता है, तथा उसके निमित्त भूत यति को भी बोधि-विघात होता है।
आदि शब्द से सम्यक्त्व लेने में अभिमुख व चारित्र लेने में अभिमुख हुए को भावपात होता है (भाव गिर जाता है) ये दोष गुरु त्यागकारी को होते हैं । तथा जो प्रमाइजनित थोड़े से दोषलव से गुरु परिहरणीय होते हों तो सबों को वर्जनीयत्व प्राप्त होगा। इसीसे प्रवचन में पांच प्रकार के निग्रंथ कहे हैं। ____ अन्तरग्रंथ सो मिथ्यात्वादिक है और बाह्यग्रंथ सो धनादिक है । इन दो से जो निर्गत हो सो निग्रंथ है। मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्यादि षट्क और क्रोधादि चतुष्क, इस प्रकार चवदह अभ्यंतर ग्रंथ हैं। धन, धान्य क्षेत्र, कुप्य, वास्तु, द्विपद, सोना, चांदी, चतुष्पद ये नव बाहानथ हैं । और पांच निग्रंथ इस प्रकार कि-पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक । पुलाक दो प्रकार का है:-लब्धिपुलाक और आसेवनापुलाक । - अन्यत्र भी कहा है कि-असार धान्य पुलाक कहलाता है, अतः उसके समान जिसका चरित्र हो, उसे पुलाक जानो। वह