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गुरु को नहीं छोड़ने पर
त्रिवर्ग साधते हुए राज्य करता था। पश्चात् एकसमय उसने थावच्चाकुमार प्रभु के पदवर्ती शुक-गुरु के पास पंथक आदि पाँच सौ मंत्रियों सहित मंडक पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर, पाप दूर करके एकादश अंग सीखे । तब शुक मुनीश्वर ने जिन-समय की विधी से उसे पंथक आदि पाँच सौ मुनियों का नायक बनाया। पश्चात् महात्मा शुकसूरि समय पर आहारत्याग करके श्री विमलाचल पर एक सहस्र मुनियों सहित मुक्ति को गये । ___ अब शैलक राजर्षि अनुचित आहार आदि वापरने के दोष से दाहज्वर से पीड़ित होकर शैलकपुर में आये | वहाँ प्रशस्त उद्यान में श्रेष्ठ भूमिभाग में उनका समवसरण हुआ सुनकर हर्ष से मंडक राजा उनको वन्दन करने के लिये निकला।
वह उनको वन्दन आदि कर, शरीर का वृत्तान्त जान कर विनन्ती करने लगा कि-हे पूज्य ! मेरे घर यानशाला में पधारिए ताकि मैं यथोचित आहार, पानी तथा औषधियों से आपके धर्म शरीर की रक्षा के हेतु चिकित्सा करा सकू। क्योंकि कहा है कि"धर्म सहित शरीर को सम्हाल से रखना चाहिये। क्योंकि-पर्वत से जैसे पानी टपकता है, वैसे ही शरीर से धर्म टपकता है" 1. .. गुरु ने यह बात मान ली, जिससे श्रेष्ठ वैद्यों ने स्निग्ध मधुरादिक आहार से उत्तम चिकित्सा करी । वैद्यों की कुशलता से तथा पथ्य, औषध, पानी भली-भांति मिल सकने से थोड़े ही दिनों में वे निरोग और बलवान हो गये। किन्तु वे स्निग्ध आहार आदि में अत्यन्त मुग्ध होकर सुखशील हो गये और ग्रामान्तर का विहार करने को उद्यत नहीं हुए । उनको अनेक बार कहा, पर वे प्रमाद से नहीं विरमे । तब पंथक सिवाय शेष मुनि एकत्रित हो कर, इस प्रकार विचार करने लगे