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गुरुकुलवास का स्वरूप
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चलात् ले आओ । तब वे बोले कि-वह जीतेजी देने वाला नहीं है । वह तो सन्मुख प्रहार करता है। तब राजा बोला कि-दूर खड़े रहकर उसे बाणों से अचेष्ट करके लाओ, किन्तु स्मरण रखना कि-उसे लेते समय किसी भी भांति गुरु को पैर से न छूना, क्योंकि-गुरु की अवज्ञा करने से महान पातक लगता है इस प्रकार संविधानक-कथा है।
अब यहां गुरु को मरवाते और पैर से छूने को मना करते शबर राजा का जैसा विवेक है, वैसा ही गुरुकुलवास को छोड़ने वाले और शुद्ध-भिक्षा करने की इच्छा रखने वाले साधु का विवेक समझो । व्यतिरेक अर्थात् इससे उलटा कहते हैं। यहां कर्म शब्द से आधाकर्म जानों | आदिशब्द से औद्देशिकादिक दोष लेना इन दोषों से दूषित आहार आदि भी गुरु की आज्ञा में चलने वाले को निर्दोष है, तो शुद्ध-भिक्षा आदि का कहना ही क्या ? ऐसा आगम के जानने वाले कहते हैं। ___ इसकी भावना इस प्रकार है:-उत्सर्गमार्ग से आधाकर्म अनेक कर्म बांधने का तथा अल्पायुष्य का कारण होने से महान् दोष वाला ही है । क्योंकि-भगवतीसूत्र में सुधर्मस्वामी ने निम्नानुसार कहा है कि :___“आधाकर्म को खाने वाला श्रमण निग्रंथ क्या बांधे, क्या करे, क्या एकत्रित करे, क्या बढ़ावे ?
हे गौतम ! आधाकर्म को खाने वाला श्रमण निग्रंथ आयु के सिवाय शेष सात कर्म प्रकृतियां ढीली बाँधी हों, उनको मजबूत करे । अल्पस्थिति की हो, उन्हें लंबी स्थिति की करे। मन्द अनुभाव वाली हो, सो तीव्र अनुभाव वाली । अल्प प्रदेश वाली