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गुरु का स्वरूप
मूल का अर्थ- सूत्र में गुणवान ही को यथार्थ गुरु शब्द का पात्र माना है और गुण में जो दरिद्री हो, उसे यथार्थ फल का दाता नहीं माना। ___टीका का अर्थ- च शब्द अवधारणार्थ होने से गुण-गण से अलंकृत गुरु ही सूत्र में अर्थात् सिद्धान्त में यथार्थ अर्थात् अन्वय वाले गुरु शब्द का भाजन अर्थात् आधार स्वीकृत किया है । यथा___ धर्म का ज्ञाता, धर्म का कत्ती, सदैव धर्म में तत्पर रहने वाला और जीवों को धर्मशास्त्र का उपदेश देने वाला हो, सो गुरु कहलाता है । इस प्रकार गुरु शब्द का अन्वयार्थ है । वह अन्वयार्थ श्र तधर्म के उपदेशक और चारित्रधर्म के विधायक संविग्न गीतार्थ गुरु ही को लागू पड़ सकता है। उक्त गुरु के मुख्यतः निन्नांकित १८ गुण हैं__ छः व्रत, छः काय की रक्षा और अकल्प, गृहिभाजन, पलंक, निषद्या, स्नान और शोभा इन छहों का त्याग । इन अठारह मुख्य गुणों के बिना गुरुत्व का अभाव ही जानों । जैसे तंतुओं के बिना पट ( वस्त्र) का अभाव रहता है, वैसे और उसी प्रकार से श्री शय्यंभवसूरि महाराज ने कहा है कि
दश और आठ अर्थात् अठारह स्थानों है उसका सेवन से अज्ञ दोषित होता है उनमें से कोई भी स्थान में वर्तमान निग्रंथपन से भ्रष्ट होता है।
शेष गुण यथा- प्रतिरूप ( रूपवान ), तेजस्वी, युगप्रधानागम, मधुरवाक्य, गंभीर, धीमान और उपदेश में तत्पर हो, सो आचार्य है । तथा अपरिश्रावी, सौम्य, संग्रहशील, अभिग्रह की मति वाला, अविकत्थन, अचपल और प्रशांत हृदयवान् हो, सो गुरु कहलाता है इत्यादिक । वैसेही देश, कुल, जाति रूप आदि विशेष