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कुन्तलदेवी का दृष्टांत
स्वभाव ही से कर मन वाली एक रानी थी तथा दूसरी सुमतिवान् भी बहुत-सी रानियां थीं। ___ उन रानियों ने अपने द्रव्य से ऊँची चोटियों के समान शिखर वाले और सुवर्ण के कलश वाले जिन-मंदिर बनवाये। तब मत्सर से भर कर कुन्तलदेवी ने उनसे विशेष शोभा वाला हिमाचल समान धवल मन्दिर बनवाया। वहां वह आश्चर्यकारक गीत, नृत्य कराती तथा सुनने से तुरन्त अचम्भा उत्पन्न करने वाले बाजे बजवाती, किन्तु वह दूसरे मन्दिरों में होती हुई पूजा देख तथा वाजों का गंभीर शब्द सुनकर प्रद्वेष धारण करती और उनकी बात सुनकर भी द्वेष करती थी। परन्तु उसकी दूसरी सपत्नियां अक्र र मन वालो, जिन-मत में रक्त और परमार्थ को विचारने वाली थीं । उनको लेश-मात्र भो प्रद्वेष नहीं आता था।
अब प्रज्वलित प्रद्वेष-रूप अग्नि की ज्वालाओं से धर्म-रूप वन को जला देने वाली कुन्तल देवी एक समय बहुत बीमार हुई। तब राजा ने उसके आभूषण आदि लेकर अपने भण्डार में रखे। जिससे वह अतिशय आत ध्यान में पड़ी । पश्चात् वह हीनपुण्य वाली कर रानी मर कर वहां कुत्ती हुई । वह पूर्व के अभ्यास से अपने बनवाये हुए जिनमंदिर के द्वार पर बैठी रहती थी। वहाँ किसी समय केवलज्ञानी पधारे । उनको नमन करके अन्तःपुर की रानियों ने पूछा कि-हे भगवन् ! कुन्तलारानी मरकर कहाँ गई है ?
तब गुरु ने भी उसका प्रद्वष करने आदि का सर्व वृत्तान्त कह कर कहा कि- वह दुर्लभ निर्मल सम्यक्त्व को दूर करके कुत्ती हुई है । यह सुनकर वे अतिशय वैराग्य प्राप्त कर पर्षदा उठने पर जिन-भवन के द्वार पर जाकर, उस कुत्ती को देखने लगी, तो उनको बहुत करुणा आई, जिससे उन्होंने उसके सन्मुख बलि तथा पूरी आदि डाली ।