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गुरु का स्वरूप
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गुण हैं और वे कादाचित्क ( अनियमित ) हैं। पट की रक्तता के समान । अतः यहां प्रधान गुणों से युक्त हो, वह गुणवान लेना चाहिये । क्योंकि- उन्हीं गुणों से काम चलता है और उनके साथ शेष गुण मिलाये जाय तो अधिक अच्छा ही है ।
इसके विपर्यय में क्या होता है, सो कहते हैं:- गुणसम्पदा अर्थात् सद्गुण रूर ऋद्धि से जो दरिद्री हो, उसे गुरु के संप्रयोग 'के यथोक्त फल का संपादक जिनागम के ज्ञाता पुरुषों ने बिल्कुल नहीं माना । अतः निर्गुण गुरु का सेवन नहीं करना चाहिये। ____कोई पूछेगा कि- आजकल काल के प्रताप से सर्व गुण संपत्ति मिलना दुर्लभ है। क्योंकि- कोई पुरुष किसी कारण से किसी गुण में अधिक हीन होता है । तो दूसरे गुण में अधिक होता है । इस भांति तारतम्य भेदों से अनेक प्रकार के गुरु हैं । इससे उनमें से किसको गुरुरूप में सेवन करना। इस विषय में हमारा मन डोलायमान होता है। अतः क्या करना चाहिये ? ऐसा शिष्य के प्रीतिपूर्वक पूछने पर गुरु कहते हैं___ मूलगुणसंपउत्तो न दोसलवजोग प्रो इमो हेप्रो ।
महुरोवक्कमो पुण पवत्तियव्यो जहुत्तंमि ॥१३१॥
मूल का अर्थ- मूल-गुण से युक्त गुरु दोषलब के योग से छोड़ने के योग्य नहीं। उन्हें तो माठी. रीति यथोक्त गुणों में चढ़ाना चाहिये । ।
टीका का अर्थ- मूलगुण याने पंच महाव्रत अथवा छः व्रत षट्काय आदि उनसे सम्यक् अर्थात् सद्बोध पूर्वक प्रकर्ष से अर्थात् अतिशय उधमी होकर जो युक्त हो, सो मूल-गुण संप्रयुक्त गुरु आशुकोपित्व-जल्द गुस्सा होना, वचनापाटव-बोलने में सकुचाना,