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गुरुकुलवास का स्वरूप
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नहीं होती, और लोभ तो अति दुर्जय है। जिससे क्षण-क्षण में बदलते परिणाम वाले अकेले फिरने वाले से पिंड-विशुद्धि ही पाली नहीं जा सकती। कहा भी है कि
"अकेले को अनेक दोष लगते हैं:-स्त्री फंसावे. कुत्ते काटें, शत्रु मारे, भिक्षा की विशुद्धि न होय, महाव्रत का भंग होय, अतएव दूसरे का संग करना चाहिये । और भी कहा है कि-"अकेला फिरने वाला एपणा का भंग करता है" इत्यादि । जब ऐसा है, तब तुमने कहा कि-मूलभूत चारित्र ही का पालन करना चाहिये, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? तथापि कोई दृढ़चित्त पुरुष अकेला रहकर शुद्ध आहार से अपना निर्वाह भी कर सके तो भी "सर्व जिनों ने अकेले विहार का निषेध किया है । उसके करने से अनवस्था होती है और स्थविर-कल्प में बाधा पहुँचती है। तथा अकेला होने से श्रु त में उपयोग रख कर चले तो वह शीघ्रही तप-संयम को बिगाड़ता है। इस वचन से अकेला बिहार करने वाला तीर्थकर की आज्ञा का विराधक माना जाने से उत्तम नहीं कहा जाता । यही बात सूत्रकार कहते हैं:एयस्म परिच्चाय सुद्धच्छाइवि न सुंदरं भणियं । कम्माइ वि परिसुद्ध गुरुपाणावत्तिणो विति ।।१२८॥
मूल का अर्थ-इसका परित्याग कर शुद्ध भिक्षा आदि करे, तो भी वह ठीक नहीं कही जाती और गुरु की आज्ञा में रहने वाले को कभी आधाकर्मि मिले, तो भी वह परिशुद्ध ही कहलाती है।
टीका का अर्थ-इसके अर्थात् गुरुकुलवास के परित्याग से अर्थात् सर्वथा इसको छोड़ देने से शुद्ध भिक्षा आदि करे । आदि