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आचार्य के छत्तीस गुण
अर्थात् उत्क्रम और क्रम वाचनादिक से स्थिरसूत्रता । स्वसमयादि भेद से विचित्रसूत्रता और उदात्त आदि स्वरविज्ञान से घोषविशुद्धिकरणता ।
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शरीरसंपत् चार प्रकार की हैः- आरोहपरिणाहयुक्तता अर्थात् उचित ऊंचाई आदि विस्तार । अनवत्रप्यता अर्थात् अलज्जनीय शरीर | परिपूर्णेन्द्रियता अर्थात् आंख आदि की ऐब (कर्मी) न हो सो और स्थिर संहननता अर्थात् तप आदि करने में समर्थ संघयण ।
वचनसंपत् के चार प्रकार इस भांति हैं:-आदेयवचनता, मधुरवचनता, अनिश्रितवचनता अर्थात् मध्यस्थवचनता और असंदिग्धवचनता ।
वाचनासंपत् के चार प्रकार ये हैं: - उद्देशन जानकर याने कि शिष्य परिणामक हैं अथवा कैसा ? आदि समझकर उद्दश करना | जानकर निर्देश करना। परिनिर्वान करके वाचना देना अर्थात् पूर्व दिये हुए आलापक शिष्य को पक्के कराकर फिर दूसरा सूत्र देना | अर्थ निर्वापणा अर्थात् अर्थ को पूर्वापर मिलें ऐसा बिठाना ।
मतिसंपत् के चार प्रकार ये हैं: - अवग्रह, इहा, अपाय और
धारणा ।
प्रयोगमतिसंपत् के चार प्रकार ये हैं:- यहाँ प्रयोग याने वादमुद्रा है। आत्मपरिज्ञान अर्थात् अपने में वाद आदि करने का कैसा सामर्थ्य है सो समझना । पुरुषपरिज्ञान अर्थात् सन्मुख वादी बौद्ध है वा साँख्य है आदि पहिचानना । क्षेत्रपरिज्ञान याने यह स्थान माया प्रधान है वा सरल है, अथवा साधुभावित है वा