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पुरुषोत्तम का चरित्र
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की बनाई हुई है। वहां हरिकुल ( यादववंश ) रूप नभस्तल में चन्द्रमा समान और दुश्मनों के मद को उतारने वाला मधु मथन ( श्रीकृष्ण ) नामक दक्षिण भरताद्ध का राजा था ।
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वहां एक समय अत्यन्त तीव्र घाति कर्म को तोड़ने वाले और दुरित रूप झाड़ को काटने में कुठार की धार समान अरिष्टनेमि भगवान पधारे। वे श्री रैवतगिरि के ऊपर स्थित नन्दन नाम के रमणीय उद्यान में देवों के रचे हुए समवसरण में देशना देने के लिए विराजमान हुए । तब खबर देने वाले मनुष्य से जिनेश्वर पधारे हैं, ऐसा सुनकर हर्षित होकर भरतार्द्ध पति उन्हें वन्दन करने को रवाना होने लगे ।
उनके साथ में समुद्रविजय वगैरा दशदशाह उसमें ही बलदेक आदि पांच महावीर ( बड़े बलवान ) रवाना हुए और उग्रसेन आदि सोलह हजार राजा तथा वीरसेन आदि इकवीस हजार शूरवीर सुभट रवाना हुए। उनमें सांब आदि साठ हजार दुर्दात ( बेपरवाह ) कुमार तथा प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमार रवाना हुए और महासेन आदि छप्पन्न हजार बलवान् तथा दूसरे अनेक सेठ - साहुकार आदि नागरिक लोग रवाना हुए।
इतने में सौधर्म इन्द्र ने अवधिज्ञान से विष्णु का मन जान कर बहुत हर्षित होकर सभा में अपने देवों से कहने लगा किग्रह महाभाग वासुदेव दूसरे के लब समान गुण को भी बड़े गुण की बुद्धि से देखता है। तब एक देवता ने विचारा कि- बालकों के समान प्रभु (बड़े) भी ऐसे वैसे बोलते हैं । ऐसा सोचकर उसकी परीक्षा करने को वह यहां आया ।
उसने समवसरण में जाने के मार्ग में अति दुर्गन्धि युक्त, खुले हुए दांत वाला मृतक कुत्ता रचा। उसकी दुर्गन्ध से घबराकर सर्व