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गुणानुराग के अन्य लिंग
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होने से महान गिने जाते गुण-रत्न अर्थात् क्षायिक, ज्ञान, दर्शन, चारित्र उनके लाभ का अर्थी अर्थात् अभिलाषी होता है । क्योंकिउद्यम करने वालों को अपूर्वकरण और क्षपकश्रेणी के क्रम से केवलज्ञान आदि की प्राप्ति होती है। यह बात सुप्रतीत (प्रसिद्ध ) ही है ।
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सयमुत्ति व सीसत्ति व उबगारित्ति व गणिव्वउ व्वत्ति । पडिबंधस्स न हेऊ नियमा एयस्स गुणहीणों ॥ १२३ ॥
मूल का अर्थ - ऐसे गुणानुरागी को स्वजन, शिष्य व उपकारी वा गच्छ वाला जो कोई गुणहीन हो, उस पर निश्चय प्रतिबन्ध होता नहीं ।
टीका का अर्थ – स्वकीय-जन सो स्वजन हैं इससे । यहां इति शब्द. उसके प्रकार बताता है और वा शब्द समुच्चयार्थ है । वह प्राकृत के कारण हव हुआ है । अथवा शिष्य है इस प्रकार से, अथवा उपकारी अर्थात् भात पानी देकर इसने पहिले उपकार किया है इस हेतु से, अथवा एक गच्छवासी है इस हेतु से । इनमें से कोई भी प्रायः प्रतिबन्ध का हेतु होता है किन्तु गुणानुरागी पुरुष को तो इनमें से कोई भी निर्गुण होय तो प्रतिबन्ध का हेतु नहीं होता ।
कारण वह ऐसा मानता है कि-शिष्य वा सहायी या एक गच्छवासी कोई भी सुगति को ले जाने वाला नहीं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र मात्र ही सुगति का मार्ग है। तब चारित्रवान ने स्वजनादिक का क्या करना ? सो कहते हैं:
करुणावसेय नवरं श्रणुमासइ तंपि सुद्धमग्गंमि । अच्चंताजोग्गं पुख अरसदृट्ठो उवे ।। १२४ ॥