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पुरुषोत्तम का चरित्र
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में वहां आ पहुँचा । उसने वहां राजा से भेट की। पश्चात् दोनों जनों ने ऐसी प्रतिज्ञा की कि- जो हारे वह जीतने वाले का शिष्य हो । तदनन्तर बन्धुदत्त मुनि ने स्याद्वाद से विशुद्ध हुई बुद्धि के बल द्वारा बहुन वचनों के विस्तार से विदुर को वाद में जीत लिया। - बन्धुदत्त को विजय पत्र मिला और उसी समय विदुर को दीक्षा दी गई। तब विकसित मुख-कमल से समस्त संघ उसकी प्रशंसा करने लगा। पश्चात् वह विदुर शिष्य को साथ लेकर पदपद पर बहुजनों से प्रशंसित होता हुआ अपने गुरु के पास आया, किन्तु गुरु ने मत्सर वश उसकी लेश-मात्र भी प्रशंसा नहीं की
और उसकी तरफ स्नेह पूर्वक दृष्टि भी नहीं की तथा हर्ष पूर्वक उसे बुलाया भी नहीं। __तब वह विचारने लगा कि- हाय ! हाय ! मेरे समान मन्दबुद्धि ने गुरु को भी प्रसन्न न किये तो अब अन्य गुण उपार्जन करने का मुझे क्या काम है ? यह सोचकर हृदय में महान् खेद कर उस दिन से बन्धुदत्त विशेष गुण उपार्जन करने से विमुख हो गया। _____ पश्चात् भवदेवसूरि अपने दोष की शुद्धि किये बिना मरकर प्रकट रीति से अत्यन्त पापी किल्विषिक देव हुआ। तत्पश्चात् वह एक दरिद्र ब्राह्मण का गूगा पुत्र हुआ। पश्चात् जैसे-तैसे बोधिलाभ पाकर, तप करके स्वर्ग को गया । ___ इस प्रकार भवदेवसूरि का चरित्र सुनकर कृष्ण आदि जन हर्षित हो पर गुण ग्रहण करने में तत्पर हुए। वे बारम्बार नेमिनाथ भगवान को नमन करके अपने-अपने स्थान को गये और भगवान भी श्रमणगण के साथ अन्यत्र विचरने लगे।
इस प्रकार ऊँची चढ़ती दोषलता को काटने में दरांते के समान श्रीकृष्ण के मनोहर चरित्र को सुनकर हे सुसाधुओं ! तुम