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गुणानुराग के अन्य लिंग
दुष्कर्म रूप पानी को चूसने में ग्रीष्म ऋतु (निदाघ ) के समान गुणानुराग को धारण करो।
इस प्रकार पुरुषोत्तम ( श्रीकृष्ण ) का चरित्र पूर्ण हुआ।
श्री वञस्वामी का चरित्र प्रायः प्रसिद्ध है तथा हमने दिनकृत्य की टीका में वर्णन कर दिया है । अतः यहां नहीं कहते । गुणानुराग ही के अन्य लिङ्ग कहते हैं
पालइ संपत्तगुणं गुणडढसंगे पमोदमुबह :: उज्जमइ भावसारं गुरुतरगुणरयणलाभत्थी ॥१२२।।
मूल का अर्थ-संप्राप्त गुण को पालता रहे अधिक गुणवान का संग होने पर प्रमोद पावे और भाव पूर्वक उद्यम करे, क्योंकिवह बहुमूल्य गुणरत्नों की प्राप्ति का इच्छुक होता है।
टीका का अर्थ-पाले अर्थात् प्रियपुत्र को उसकी जननी जिस प्रकार रखती अथवा बढ़ाती है उस भांति भलीप्रकार हुए कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुण को संपादन करे, बढ़ावे तथा गुणों से जो आढ्य अर्थात् भरपूर हो, उनके संग अर्थात् मिलाप में दीर्घकाल से परदेश गये हुए स्नेही भाई को मिलने से जैसे आनन्द होता है वैसे ही खूब आनन्द पावे ! वह इस प्रकार कि- असत् पुरुषों के संग रूप पङ्क से जो मैला मन किया था, सो मेरा मन साधु पुरुष के संबंध रूप पानी से आज निर्मल हुआ है। असंग चित्त वाले गुणवान साधुजनों के संग से आज मैंने पूर्व में रोपे हुए पुण्य रूप तरु का उत्तम फल पाया है। गुणानुराग ही से वह ध्यान, अध्ययन, तप आदि कृत्यों में भावसार होकर अर्थात् सद्भाव पूर्वक उज्वल होता है अर्थात् प्रयत्न करता है । क्योंकि- गुरुतर अर्थात् क्षायिकभाव से होने वाले